________________ आगम निबंधमाला में क्रोध करके स्वयं परेशान होने वाला अर्थात् आहार उपधि मकान आदि के अनुकूल नहीं मिलने पर बड़बड़ाट करने वाला भी यथाछंद कहलाता है / // 3492 // उत्सूत्र प्ररुपणा सम्बन्धी छोटे बड़े उदाहरण :(1) पात्र प्रतिलेखनिका व मुहपति दो का एक उपकरण कर दो, सम्पूर्ण प्रमार्जना कार्य(शरीर पात्र आदि का) मुंहपति से ही कर लेना चाहिए / इसमें क्या विरोध है, एक उपकरण कम होने से अल्प उपकरणता होती है। (2) दांत से नख काट लेना चाहिए नखछेदनक लाने की जरूरत नहीं है। (3) पात्र के लेप किए बिना ही काम में लेना / लेप कार्य में बहुत दोष (प्रमादादि) होता है। (4) हरी घास पर से भी पत्थर आदि लेने में कोई दोष नहीं बल्कि दबे हुए जीवों को पत्थर हटाने से शान्ति मिलती है / (5) उद्गम आदि दोष से शुद्ध हो तो सैय्यातरपिंड, राजपिंड आदि ग्रहण कर लेना चाहिए, इसमें कोई दोष नहीं है। (6) पलियंक आदि नये हो और उसमें खटमल आदि जीव न हो तो उस पर सोना चाहिए / इसमें कोई दोष नहीं है। (7) गृहस्थ के घर में बैठने में क्या दोष है ? यदि साधु वहाँ बैठेगा तो कुछ न कुछ धर्म का ही उपदेश देगा, इसलिए बहुत लाभ होगा। (8) गृहस्थ के घर उसके बर्तनों में खा लेने से क्या दोष है ? बल्कि मांगने के लिए घर-घर फिरने से जो हीलना होती है उसकी कमी ही होगी। (9) दोष रहित कुशल चित्त वाला साधु यदि साध्वी के उपाश्रय में बैठ जाय तो क्या दोष है ? यदि वहाँ बैठने मात्र से अकुशल चित्त होता हो तो अन्यत्र भी साध्वी के पास बैठने से दोष हो जायेगा। (10) यदि कोई अन्य दोष नहीं लगता हो तो मास कल्प से ज्यादा भी रह जाना चाहिये और जहाँ दोष की संभावना हो वहाँ उससे पहले ही विहार कर देना चाहिए / अतः मासकल्प का नियम रखने में कोई प्रयोजन नहीं है। -se