________________ आगम निबंधमाला शील, पढ़ाने में कुशल, समझाने में दक्ष, दीर्घ संयम पर्याय, शुद्ध ब्रह्मचारी, विविध लब्धि संपन्न आदि / अत: कभी सकारण मर्यादित वंदनादि व्यवहार गीतार्थ के निर्णय से रखना आवश्यक भी हो जाता है / वंदनीय अवंदनीय का सामाजिक सूक्ष्मावलोकन : पूर्व काल में पार्श्वनाथ भगवान के रंग बिरंगे वस्त्र वाले या सदा प्रतिक्रमण भी नहीं करने वाले, मासकल्प मर्यादा भी नहीं पालने वाले इत्यादि विचित्र समाचारी वाले श्रमण भी ग्राम नगर में आ जाते तो वहाँ के श्रमणोपासक उनका दर्शन सेवा पर्युपासना आदि करते थे और भगवान महावीर के श्रमण आ जाते तो भी वही व्यवहार रखते थे / आज भी गुजरात सौराष्ट्र में गच्छ समुदाय समाचारी का भेद रखे बिना श्रावकों का व्यवहार सभी संप्रदाय के श्रमणों के साथ ऐसा ही देखा जाता है / अन्य प्रान्तों में कई श्रमण या श्रमणोपासक एक दूसरे गच्छ के श्रमणों के प्रति हीन भावना, उपेक्षा या अनादर भावना रखते हैं और मेरा तेरा पन गुरुओं के प्रति रख कर शुद्ध व्यवहार से वंचित रहते हैं / श्रावकों द्वारा गुरुओं को वंदन न करने में दो कारण सामने आते हैं- (1) इनकी क्रिया ठीक नहीं है / (2) ये हमारे गुरुओं को वंदन नहीं करते या इसके श्रावक हमारे गुरुओं को वंदन नहीं करते इसलिए हम भी नहीं करते / - इसमें दूसरा कारण तो स्पष्टतः व्यक्ति को जैनत्व से भी च्युत करता है क्यों कि जहाँ गुरु के प्रति गण बुद्धि नहीं होकर मेरे तेरे की वत्ति घुस जाती है फिर तो वह धर्म क्षेत्र ही कैसे गिना जा सकता है ? उसमें तो केवल अपनी कलुस या संकीर्ण मानस वत्ति का पोषण मात्र है, वहाँ जैनत्व भाव भी नहीं पाया जा सकता। प्रथम कारण भी कहने मात्र का ही है / वास्तव में क्रिया का महत्व न होकर उसके पीछे भी रागद्वेषात्मक विचार ही अधिक है / क्यों कि इन्हीं क्रियाओं के रहते जब ये भिन्न गच्छीय साधु मैत्री सम्बन्ध कर लेते हैं तो श्रमण श्रमणोपासक सभी के लिए वंदनीय हो जाते है और जब इन साधुओं का किसी कषाय वत्ति के कारण मैत्री सम्बन्ध टूट जाता है तो ये उन्हीं श्रमणों श्रमणोपासकों के लिए उसी