________________ आगम निबंधमाला से ही छोटे या बडे दोष चालू होते हैं तो उसको यह नियंठा प्रारंभ से ही नहीं आता है और इस नियंठे के आए बिना अन्य कोई भी नियंठा नहीं आता है। अतः वैसा साधक प्रारंभ से ही संयम रहित वेष मात्र का साधु बनता है और जीवनभर उन दोषो के रहते वह सदा वेष मात्र का ही साधु रहता है / वैसे में वह जो भी गुणों की वृद्धि करता है, ब्रह्मचर्य, रात्रिचौविहार, तपस्या आदि करता है वे सब उसके लिये पाँचवें गुणस्थान के संवर निर्जरा रूप होते हैं / श्रद्धा प्ररूपण गलत हो तो प्रथम गुणस्थानवर्ती संवर निर्जरा अभवी के जैसे होते रहते हैं एवं पुण्य संचय और शुभ परिणामों से सद्गति में जा सकता है। यह कषाय कुशील निर्ग्रन्थ महाव्रत, समिति, गुप्ति, संयमाचार में किंचित भी अतिचार या अनाचार का सेवन नहीं करता है / इस नियंठे में केवल सीमित दर्जे के क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं एवं विनष्ट हो जाते हैं / अर्थात् संज्वलन के कषाय का उदय अप्रकट या कभी शारणा वारणा या अन्य प्रसंग से प्रगट रूप में भी हो जाता है / वह कषाय, कषाय तक ही सीमित रहता है, महाव्रत समिति आदि के दोष में नहीं पहुँचता है,तथा संज्वलन की सीमा का भी उल्लंघन नहीं करता है। सीमा यह है कि कषाय आने के समय वह मंद या तेज कैसा भी दिखे पर ज्यादा समय नहीं टिकता है किन्तु पानी की लकीर के मिट जाने के समान शीघ्र शांत हो जाता है। पानी की लकीर बारीक भी हो सकती व विशाल भी हो सकती परन्तु उसकी विशेषता यही है कि वह मिटती तुरंत है। उसी तरह दिखने में कषाय उग्र या मंद कैसा भी दिखे किन्तु जल्दी ही दिमाग शांत हो जाये, कषाय अवस्था हट जावे, बस यही संज्वलनता की पहिचान है / इस नियंठे में 6-7-8-9-10 ये पाँच गुणस्थान हो सकते हैं, छठे के सिवाय तो आगे के अप्रमत्त गुणस्थानों में प्रकट कषाय भी नहीं होती किन्तु अप्रकट उदय चालू होने से वे भी कषाय कुशील निर्ग्रन्थ कहलाते हैं / बकुश और प्रतिसेवना नियंठे में गुणस्थान दो होते हैं, छट्ठा और सातवाँ / पुलाक में केवल छट्ठा गुणस्थान ही होता है / कई दोष, दोष होते हुए भी क्षम्य दर्जे के होते हैं उनसे इस नियंठे