________________ आगम निबंधमाला 40. मार्ग में हरी-घास, बीज, अनाज आदि कोई भी सचित चीजें हो तो अन्य मार्ग होते हुए उस दोष युक्त मार्ग से नहीं जाना और अन्य मार्ग न हो तो पांव को आड़ा टेड़ा या पंजों के बल करके पाँव को संभाल-संभाल कर यथाशक्य बचाव करते हुए चलना अर्थात् पूरे पांव को धरते हुए आराम से नहीं चलना / -आचा. 2, अ. 3 / 41. एषणा के 42 दोष टालकर आहार, वस्त्र पात्र, शय्या आदि ग्रहण करना चाहिए / उत्तरा. अ. 24 गा. 11 / ये दोष युक्त ग्रहण करने पर गुरूचौमासी, गुरूमासी व लघुचौमासी आदि प्रायश्चित्त आते हैं। निशीथ. उद्दे.१, 10, 13, 14 आदि / 42. खुले मुंह से बोलना सावध भाषा है अर्थात् मुंहपति से मुँह ढके बिना किंचित भी नहीं बोलना / भग. श. 16 उद्दे०२ / . इन आगमोक्त निर्देशों के तथा और भी ऐसी अनेक आज्ञाओं के विपरीत यदि अपनी प्रवत्ति है और प्रायश्चित्त शुद्धि भी नहीं की जाती है तो ऐसी स्थिति में अपने को शिथिलाचारी नहीं मानकर शुद्धाचारी मानना, अपनी आत्मा को धोखा देना होता है / यदि शिथिलाचारी का कलंक पसंद न.हो तो उपरोक्त आगम निर्देशों के अनुसार चलने की और अशुद्ध प्रवति या परम्परा को छोड़ने की सरलता व ईमानदारी धारण करनी चाहिए। निबंध-१० शिथिलाचार व शुद्धाचार का स्वरुप शाब्दिक स्वरुप :- संयम आचार का शुद्ध पालन, शुद्धाचार है / शिथिलता से अर्थात् सुस्ती से, जागरुकता की कमी से, शुद्धाशुद्ध रूप से संयम आचार का पालन, शिथिलाचार है / प्राचीन भाष्यादि ग्रन्थों में इनके लिए "शीतल विहारी" और "उद्यत विहारी" शब्दों का प्रयोग मिलता है / शीतल का अर्थ सुस्ती से और उद्यत का अर्थ जागरुकता से संयम में विचरण करने वाले इस तरह समझ लेने से प्रचलित शब्द और प्राचीन काल के शब्द प्रायः एकार्थवाची होते हैं। / 63