________________ आगम निबंधमाला . . एवं श्रद्धा प्ररूपणा की शुद्धि वाले एवं शुद्धाचार के लक्ष्य वाले होने से बकुश या प्रतिसेवना निर्ग्रन्थ में ही गिने जाने के योग्य होते हैं। इन दोनों प्रकार के निर्ग्रन्थ में छठवाँ या सातवाँ गुणस्थान हो सकता है। यदि ये दूषित आचार वाले कभी प्ररूपणा में गलती करने लग जाय और वे शुद्धाचारी के प्रति द्वेष या अनादर भाव रखे एवं उनके प्रति आदर और विनय भक्ति भाव नहीं रखे या इनके भावों में तीन अशुभ लेश्या आ जावे अथवा आवश्यक संयम पज्जवों के दर्जे में कमी आ जावे तो इनका छठवाँ गुणस्थान भी छूट जाता है तब वे चौथे गुणस्थान में या प्रथम गुणस्थान में पहुँच जाते हैं / अत: दूषित संयम प्रवत्तियों वालों को अपनी भाषा एवं भावों की सरलता, आत्म शान्ति, हृदय की शुद्धि आदि उक्त निर्देशों का पूर्ण विवेक रखना अत्यन्त आवश्यक है अन्यथा ये दुहरा अपराध करके यह भव और पर भव दोनों बिगाड़ कर दुर्गति के भागी बनते हैं / निबंध-१३ ... शद्धाचार वालो को विवेक ज्ञान भाग्यशाली जीवों को ही ज्ञान दर्शन चारित्र की शुद्ध आराधना का संयोग एवं उत्साह प्राप्त होता है / जैसे धन से धन की वद्धि होती है वैसे ही गुणों से गुणों की वद्धि ही होनी चाहिए / तदनुसार शुद्धचारी होने का आत्म विश्वास रखने वाले साधकों को अपनी साधना का कभी भी घमण्ड नहीं करना चाहिए / अपना उत्कर्ष एवं दूसरों का अपकर्ष करने की वत्ति नहीं रखनी चाहिए / जितने भी अन्य स्वगच्छीय या परगच्छीय शुद्धाचारी उत्कष्टाचारी श्रमण है, उनके प्रति किसी भी प्रकार की स्पर्धा भाव न रखते हुए आत्मीय भावपूर्वक उनका पूर्ण सत्कार, सन्मान, विनयभाव आदि रखना चाहिए / जो भी अपने कर्म संयोगों के कारण एवं चारित्र मोह के अशुद्ध-अपूर्ण क्षयोपशम के कारण दूषित आचारण वाले शिथिलाचारी या भिन्न समाचारी वाले श्रमण है उनके प्रति निंदा, ईर्ष्या, द्वेष, घणा, हीन भावना, उनका अपयश-अकीर्ति करने की भावना नहीं रखते