________________ आगम निबंधमाला भी होते हैं। इस तरह पाँच भेदों का अर्थ समझना चाहिए / .. पाँच की संख्या मिलाने की शैली के अतिरिक्त व्यक्ति की अपेक्षा भी इसके अनेक प्रकार से दो दो भेद हो सकते है और सरलता से समझ में भी आ सकते हैं यथा-१. उपशांत कषाय निर्ग्रन्थ और क्षीण कषाय निग्रंथ / ऐसे ही प्रथम समय का निग्रंथ और 2. अप्रथम समय का निर्ग्रन्थ / ऐसे ही 1. चरम समय का निर्ग्रन्थ और 2. अचरम समय का निर्ग्रन्थ / इस प्रकार व्यक्तिगत अपेक्षा.से तो दो दो भेद ही बन सकते हैं / सूत्रोक्त पाँच भेद तो अशास्वतता को ध्यान में लेकर संसार के समस्त जीवों की अपेक्षा है जो उपरोक्त तरीके से बन भी जाते हैं और समझ में भी आ जाते हैं / वे सूत्रोक्त पाँच भेद इस प्रकार है - 1. प्रथम समयवर्ती निर्ग्रन्थ 2. अप्रथम समयवर्ती निर्ग्रन्थ 3. चरम समयवर्ती निर्ग्रन्थ 4. अचरम समयवर्ती निर्ग्रन्थ 5. यथासूक्ष्म निर्ग्रन्थ अर्थात् द्विसंयोगी आदि अवस्थाएँ / , 6. स्नातक नियंठा :- चार घाती कर्म के सम्पूर्ण क्षय होने पर यह नियंठा आता है और केवलज्ञान, केवलदर्शन युक्त दो गुणस्थान (13-14) में पाया जाता है / यहाँ पर भेद बनने में कोई दोष का निमित्त भी नहीं है, कषाय का निमित्त भी नहीं है, तथा आश्स्वतता भी नहीं है अर्थात् यह नियंठा शास्वत है / इस नियंठे वालों में एक ही संयम स्थान समान रूप से होता है / आत्मगुण, ज्ञान दर्शन भी सब का समान होता है / अत: भेद बनने में कोई भी कारण नहीं है। फिर भी 5 की संख्या शैली का अनुसरण करते हुए शास्त्रकार ने 5 प्रकार कहे हैं, जो अलग-अलग पाँच गुणों के संग्राहक रूप में है किन्तु भेद रूप नहीं है यथा-- 1. अछवि- योग निरोध अवस्था में काय योग के अभाव में यह गुण (अवस्था) प्रगट होता है / 2. असबले- सम्पूर्ण दोष रहित संयम अवस्था ही प्रारंभ से होती है। 3. अकम्मसे- चार घाती कर्म से रहित अवस्था प्रारंभ से ही होती है। 4. संसुद्ध णाणदसण धरे-- प्रारंभ से विशुद्ध ज्ञान दर्शन के धारी होते हैं / [54