________________ आगम निबंधमाला 5. अपरिश्रावी- इस निर्ग्रन्थ के योग निरोध करने के बाद जब शाता वेदनीय का बंध भी रुक जाता है तब यह 'अक्रिया अवस्था' प्राप्त होती है।' इस तरह भगवती सूत्र श. 25 उ. 6 के आधार से चिंतन पूर्वक यह छ: निर्ग्रन्थो का व्याख्यान किया गया है। भगवती के उस वर्णन में यह भी बताया गया है कि बकुश और प्रतिसेवना दोनों दोष लगाने वाले नियंठे लोक में शास्वत रहते हैं एवं कम से कम भी अनेक सौ करोड़ सदा मिलते हैं। __इससे यह स्पष्ट होता है कि महाविदेह क्षेत्र में भी मूल गुण और उत्तर गुण में दोष लगाने वाले निर्ग्रन्थ कम से कम अनेक सौ करोड़ सदा शास्वत मिलते हैं जिन्हें भगवती आगम निर्ग्रन्थ रूप में स्वीकार करता है और जो निर्ग्रन्थ होते है उनमें छठवाँ गुणस्थान या उससे उपर के कोई भी गुणस्थान होते हैं / अतः वे सभी मूल गुण उत्तरगुण के दोषी भी वंदनीय निर्ग्रन्थ है / यदि वे उपरोक्त बकुश प्रतिसेवना निर्ग्रन्थ की सूक्ष्म और स्थूल सभी परिभाषाओं में सत्य सिद्ध हो सके / अर्थात् (1) दोष कम संयम तप पुष्टि ज्यादा (2) दोष सेवन और यथासमय प्रायश्चित्त (3) परिस्थिति से दोष सेवन करते हुए भी मन में खेद-खटक एवं संयम लक्ष्य की जागरूकता रहे (4) दीक्षा लेते ही दोष सेवन नहीं किन्तु कुछ समय पूर्ण दोष रहित संयम (5) चारित्र पर्यव-चारित्र धन, पुलाक के उत्कृष्ट पर्यव से भी सदा अनंत गुण अधिक ही रहे कम नहीं होवे (6) लेश्या तीन अशुभ कभी नहीं आवे (7) आचार का प्ररूपण-निरूपण आगम संमत रहे, मनमानी आगम निरपेक्ष स्वच्छंद प्ररूपण नहीं होवे (8) कषाय-क्रोध,मान, माया, लोभ, सज्जवलन के रहे अर्थात अल्पतम समय में कषायभाव परिवर्तित हो जावे, ज्यादा लंबे समय कषाय नहीं रहे, नहीं टिके तथा किसी भी व्यक्ति के प्रति नाराजीभाव, रंजभाव, अनबना, अक्षमाभाव ज्यादा देर नहीं रहे, समभाव, क्षमाभाव में ज्ञान वैराग्य से हृदय को शीघ्र पवित्र शांत बना लेवे / इतनी सारी सभी शर्तोंकसोटियों में पास होवे तो वह अमुक दोष युक्त अवस्था में भी | 55 /