________________ आगम निबंधमाला अर्थात् पूर्व के चार भेदों में जिन प्रवत्तियों, अवस्थाओं का समावेश नहीं हो ऐसी उन नियंठे के दर्जे की शेष अवस्थाओं को कहने वाला यह पाँचवाँ भेद सूत्र में कहा गया है / ___ पौद्गलिक सुख की लालसा से, इच्छा पूर्ति के लिये, कष्ट सहन नहीं कर सकने से, अपनी बात रखने के लिये, मान कषाय आदि के पोषण के लिये, क्षेत्र या श्रावक आदि रूप परिग्रहवत्ति की भावना से, दूसरों के लिहाज दबाव से, अशुद्ध समझ से, जैसे कि "उपकार होगा" इत्यादि से मूलगुण या उत्तर गुण में दोष लगावे, भगवदाज्ञा से विपरीत प्रवति करे, वह यथासूक्ष्म प्रतिसेवना कुशील निर्ग्रन्थ कहलाता है तथा जो साधु "मकान-पाट, पानी पात्र आदि में आधाकर्मी या क्रीत आदि दोष लगते ही है" ऐसी मनोवत्ति रखते हुए इन पदार्थों की गवेषणा और उपभोग करता है, इसके अतिरिक्त शुद्ध संयम का पालन करता है तो भी वह यथासूक्ष्म प्रतिसेवना कुशील कहलाता है। तुलनात्मक परिचय :- ये तीनों नियंठे संयम ग्रहण करने के समय नहीं आते हैं / ये तीनों प्रतिसेवी नियंठे है अर्थात् इनका संयम शुद्ध नहीं होता है / इन तीनों नियंठों में परिणाम-लेश्या तीन शुभ ही रहती है। जबकि कषाय कुशील नियंठे में शुभ-अशुभ 6 ही लेश्या में संयम भाव टिकता है। परन्तु इन तीनों नियंठों के यदि कभी अशुभ लेश्या आ जाय तो नियंठा तत्काल असंयम में परिवर्तित हो जाता है / __पुलाक नियंठा वाला मूल गुण या उत्तर गुण में दोष लगावे तो भी उसके संयम रहता है किन्तु अंतर्मुहर्त बाद तक दोष अवस्था रहे तो संयम नहीं रहता है / बकुश नियंठा शिर्फ उत्तरगुण के दोष तक में जीवन भर रह सकता है परन्तु इसके उत्तरगुण के दोषों की भी जो सीमा है उसका उल्लंघन कर जाय तो वह असंयम में चला जाता है / क्यों कि यह नियंठा शिथिलाचार प्रवति रूप होता है अत: दोष लगाने में कोई कारण, परिस्थिति, अशक्यता, लाचारी, खेद आदि की मुख्यता न होने से इसमें सूक्ष्म दोषों तक ही संयम टिक सकता है, दोष की सीमा बढ़ने पर असंयम आ जाता है / अत: केवल उत्तरगुण प्रतिसेवना में ही यह नियंठा टिकता है / 47