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१६,२० अन्यतीर्थिक साधु, श्रावक तथा देव आदि का आगमन। २१-२४ केशी द्वारा चातुर्याम धर्म और पंच महाव्रत धर्म के बारे
में प्रश्न। २५-२७ गौतम का समाधान। २८-३० केशी द्वारा सचेलक-अचेलक के बारे में जिज्ञासा। ३१-३३ लोक-प्रतीति आदि कारणों से वेष-धारण आवश्यक। ३४,३५ शत्रुओं पर विजयी कैसे? ३६-३८ गौतम का समाधान। ३६,४० पाश-बहुल संसार से मुक्त विहार कैसे? ४१-४३ गौतम का समाधान। ४४,४५ विष-तुल्य फल वाली लता का उच्छेद कैसे? ४६-४८ गौतम का समाधान। ४६,५० घोर अग्नियों का उपशमन कैसे? ५१-५३ गौतम का समाधान। ५४,५५ दुष्ट अश्व पर सवार होकर भी तुम उन्मार्ग पर क्यों नहीं? ५६-५८ गौतम का समाधान।
५६,६० कुमार्ग की बहुलता होने पर भी भटकते कैसे नहीं ? ६१-६३ गौतम का समाधान। ६४,६५ महान् जल-प्रवाह में बहते हुए जीवों के लिए शरण,
गति, प्रतिष्ठा और द्वीप कौन ? ६६-६८ गौतम का समाधान। ६६,७० महाप्रवाह वाले समुद्र का पार कैसे? ७१-७३ गौतम का समाधान। ७४,७५ तिमिर-लोक में प्रकाश किसके द्वारा? ७६-७८ गौतम का समाधान। ७६,८० पीड़ित प्राणियों के लिए खेमंकर स्थान कहां? ८१-८४ गौतम का समाधान। ८५-८७ श्रमण केशी द्वारा गौतम की अभिवन्दना और पूर्व-मार्ग
से पश्चिम-मार्ग में प्रवेश। केशी और गौतम का मिलन महान् उत्कर्ष और
अर्थ-विनिश्चय का हेतु। ८६ परिषद् का संतोषपूर्वक निर्गमन।
चौबीसवां अध्ययन : प्रवचन-माता (पांच समिति तथा तीन गुप्तियों का निरूपण) पृ० ३८७-३९६ श्लोक १ अध्ययन का उपक्रम।
२० मनोगुप्ति के चार प्रकार। २ समिति, गुप्तियों का नाम-निर्देश।
२१ संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्तमान मन के ३ जिन-भाषित द्वादशांग-रूप प्रवचन का प्रवचन-माता में
निवर्तन का उपदेश। समावेश।
२२ वचन-गुप्ति के चार प्रकार। ४ साधु को ईर्यापूर्वक चलने का आदेश।
२३ संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्तमान वचन के ५-८ ईर्या का आलम्बन, काल, मार्ग और यतना का निर्देश ।
निवर्तन का उपदेश। ६,१० भाषा-समिति का स्वरूप और विधि।
२४,२५ संरम्भ, समारम्भ में प्रवर्तमान शरीर के निवर्तन का ११,१२ एषणा-समिति का स्वरूप और विधि।
उपदेश। १३,१४ आदान-समिति का स्वरूप और प्रतिलेखन-विधि
२६ चारित्र की प्रवृत्ति के लिए समिति का तथा अशुभ १५-१६ उच्चार-समिति का स्वरूप और प्रतिलेखन-विधि
विषयों से निवृत्ति के लिए गुप्ति का विधान । १६ समितियों के कथन के पश्चात् गुप्तियों का कथन।
२७ प्रवचन-माता के आचरण से मुक्ति की संभवता।
पचीसवां अध्ययन : यज्ञीय (जयघोष और विजयघोष का संवाद)
पृ० ३९७-४०७ श्लोक १-३ जयघोष मुनि का परिचय और वाराणसी में आगमन। २८ वेद और यज्ञ की अत्राणता। ४ विजयघोष ब्राह्मण द्वारा यज्ञ का आयोजन।
२६ श्रमण, ब्राह्मण, मुनि और तापस के स्वरूप में बाह्याचार ५ मुनि का वहां भिक्षार्थ उपस्थित होना।
का खण्डन। ६-८ विजयघोष द्वारा भिक्षा का निषेध।
३० श्रमण, ब्राह्मण, मुनि और तापस की वास्तविक व्याख्या। ६,१० मुनि द्वारा समभाव पूर्वक ब्राह्मण को संबोध ।
३१ जाति से कर्म की प्रधानता। ११,१२ वेद-मुख, यज्ञ-मुख, नक्षत्र-मुख, धर्म-मुख एवं अपने- ३२,३३ कर्मों से मुक्त आत्मा ही ब्राह्मण और उन्हीं की पराये उद्धार में समर्थ व्यक्तियों के विषय में जिज्ञासा।
अपने-पराए उद्धार में समर्थता का प्रतिपादन। १३-१५ विजयघोष का निरुत्तर होना और मुनि से इसके बारे में ३४-३७ विजयघोष द्वारा मुनि की स्मृति और भिक्षा के लिए प्रश्न।
आग्रह। १६ मुनि द्वारा समाधान।।
३८ मुनि का विजयघोष को संसार से निष्कमण का उपदेश । १७ चन्द्रमा के सम्मुख ग्रहों की तरह भगवान् ऋषभ के ३६-४१ मिट्टी के गीले और सूखे गोले की उपमा से भोगासक्ति समक्ष समस्त लोक नत-मस्तक।
के स्वरूप का विश्लेषण। १८ यज्ञवादी ब्राह्मण-विद्या से अनभिज्ञ ।
४२ विजयघोष द्वारा प्रव्रज्या-स्वीकार। १६-२७ ब्राह्मण के स्वरूप का निरूपण।
४३ जयघोष और विजयघोष दोनों को सिद्धि-प्राप्ति।
धमय पतझापा
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