Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रस्तावना (प्रथम संस्करण से) अन्तकृद्दशा : एक अध्ययन
अतीत के सुनहरे इतिहास के पृष्ठों का जब हम गहराई से अनुशीलन-परिशीलन करते हैं तो यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि प्रागैतिहासिक-काल से ही भारतीय तत्त्वचिन्तन दो धाराओं में प्रवाहित है, जिसे हम ब्राह्मणसंस्कृति और श्रमणसंस्कृति के नाम से जानते-पहचानते हैं। दोनों ही संस्कृतियों का उद्गमस्थल भारत ही रहा है। यहां की पावनपुण्य धरा पर दोनों ही संस्कृतियां फलती और फूलती रही हैं। दोनों ही संस्कृतियां साथ में रहीं इसलिये एक संस्कृति की विचारधारा का दूसरी संस्कृति पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है, सहज है। दोनों ही संस्कृतियों की मौलिक विचारधाराओं में अनेक समानताएं होने पर भी दोनों में भिन्नताएं भी हैं। ब्राह्मणसंस्कृति के मूलभूत चिन्तन का स्रोत 'वेद' है। जैन परम्परा के चिन्तन का आद्य स्रोत 'आगम' है। वेद 'श्रुति' के नाम से विश्रुत है तो आगम "श्रुत" के नाम से! श्रुति और श्रुत शब्द में अर्थ की दृष्टि से अत्यधिक साम्य है। दोनों का सम्बन्ध "श्रवण" से है। जो सुनने में आया वह श्रुत है। और वही भाववाचक श्रवण श्रुति है। केवल शब्द श्रवण करना ही श्रुति और श्रुत का अभीष्ट अर्थ नहीं है। उसका तात्पर्यार्थ है-जो वास्तविक हो, प्रमाणभूत हो, जन-जन के मंगल की उदात्त विचारधारा को लिये हुए हो, जो आप्त पुरुषों व सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतराग महापुरुषों के द्वारा कथित हो वह आगम है, श्रुत है, श्रुति है। साधारण-व्यक्ति जो राग-द्वेष से संत्रस्त है, उसके वचन श्रुत और श्रुति की कोटि में नहीं आते हैं। आचार्य वादिदेव ने आगम की परिभाषा करते हुए लिखा है-आप्त वचनों से आविर्भूत होने वाला अर्थ-संवेदन ही "आगम"
क. श्रूयते स्मेति श्रुतम्। ख. श्रूयते आत्मना तदिति श्रुतं शब्दः। आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः।
- तत्त्वार्थराजवार्तिक। -विशेषावश्यकभाष्य मलधारीयावृत्ति। -प्रमाणनयतत्त्वालोक ४।१-२।
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