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तृतीय वर्ग]
[८१ शरीर में विष फैल जाए. आय असमय में ही समाप्त हो जाती है।
७. आण-पाण-श्वास की गति बन्द हो जाने पर आयु-भेद हो जाता है। निमित्तों को पाकर जो आयु नियत काल समाप्त होने से पहले ही अन्तर्मुहूर्त मात्र में भोग ली जाती है, उस आयु का नाम अपवर्तनीय आयु है। इसे सोपक्रम आयु भी कहते हैं। जो उपक्रम सहित हो वह सोपक्रम है। तीव्र शस्त्र, तीव्र विष, तीव्र अग्नि आदि निमित्तों का प्राप्त होना उपक्रम है। अनपवर्तनीय आयु सोपक्रम और निरुपक्रम दोनों प्रकार की होती है। दूसरे शब्दों में इस अनपवर्तनीय आयु को अकालमृत्यु लानेवाले अध्यवसान आदि उक्त निमित्तों का संनिधान होता भी है और नहीं भी होता है। उक्त निमित्तों का संनिधान होने पर भी अनपवर्तनीय आयु नियतकाल से पहले पूर्ण नहीं होती।
यहाँ इतना ध्यान रखना आवश्यक है कि बन्धकाल में आयुकर्म के जितने दलिक बंधते हैं, उन सब का भोग तो जीव को करना ही पड़ता है, केवल वह भोग जब स्वल्प काल में हो जाता है तब वह कालिक स्थिति की अपेक्षा अकालमरण कहा जाता है।
२७-कहण्णं भंते! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स अणगारस्स साहिज्जे दिण्णे? तए णं अरहा अरिट्ठनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी
से नूणं कण्हा! तुमं ममं पायवंदए हव्वमागच्छमाणे बारवईए नयरीए एगं पुरिसं-जाव' [जुण्णं जराजजरियदेहं आउरं झूसियं पिवासियं दुब्बलं किलंतं महइमहालयाओ इट्टगरासीओ एगमेगं इट्टगं गहाय बहिया रत्थापहाओ अंतोगिहं अणुप्पवेससि। तए णं तुमे एगाए इट्टगाए गहियाए समाणीए अणेगेहिं परिससएहिं से महालए इगस्स रासी बहिया रत्थापहाओ अंतोघरंसि अणुपवेसिए। जहा णं कण्हा! तुमे तस्स पुरिसस्स साहिज्जे दिण्णे, एवामेव कण्हा! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स अणगारस्स अणेगभव-सयसहस्स-संचियं कम्मं उदीरेमाणेणं बहुकम्मणिज्जरत्थं साहिज्जे दिण्णे।
यह सुनकर कृष्ण वासुदेव ने पुनः प्रश्न किया- 'हे पूज्य ! उस पुरुष ने गजसुकुमाल मुनि को किस प्रकार सहायता दी?'
अर्हत् अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव को इस प्रकार उत्तर दिया
"कृष्ण! मेरे चरणवंदन के हेतु शीघ्रतापूर्वक आते समय तुमने द्वारका नगरी में एक वृद्ध पुरुष को देखा [जो अति वृद्ध, जरा से जर्जरित, अति क्लान्त, कुम्हलाया हुआ, दुर्बल था, उसके घर के बाहर राजमार्ग पर पड़ी हुई एक ईंट उस वृद्ध के घर में जाकर रख दी। तुम्हें एक ईंट रखते देखकर तुम्हारे साथ के सब पुरुषों ने भी एक-एक ईंट उठा कर उस वृद्ध के घर में पहुँचा दी और ईंटों की वह विशाल राशि तत्काल राजमार्ग से उठकर उस वृद्ध के घर में चली गई। इस तरह तुम्हारे इस सत्कर्म से वृद्ध पुरुष का कष्ट दूर हो गया।] हे कृष्ण! वस्तुतः जिस तरह तुमने उस पुरुष का दुःख दूर करने में उसकी सहायता की, उसी तरह हे कृष्ण! उस पुरुष ने भी अनेकानेक लाखों भवों के संचित कर्मों की राशि की उदीरणा करने में संलग्न गजसुकुमाल मुनि को उन कर्मों की संपूर्ण निर्जरा करने में सहायता प्रदान की है।"
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में भगवान् अरिष्टनेमि ने श्रीकृष्ण को उन्हीं के (श्रीकृष्ण के) जीवन में घटित उदाहरण से यह समझाया कि वास्तव में गजसुकुमाल मुनि के कर्मक्षय में सोमिल सहायक बना।
१. देखिए सूत्र २४