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[अन्तकृद्दशा २.श्रुतव्यवहार-आचारप्रकल्पादि ज्ञान श्रुत है, इससे किया जानेवाला व्यवहार श्रुतव्यवहार है। नव, दश और चौदह पूर्व का ज्ञान भी श्रुतरूप है, परन्तु अतीन्द्रिय अर्थविषयक विशिष्ट ज्ञान का कारण होने से उक्त ज्ञान अतिशय वाला है, अतः वह आगम रूप माना गया है।
३. आज्ञाव्यवहार-दो गीतार्थ साधु एक दूसरे से अलग भिन्न-भिन्न प्रदेशों में रहे हों और शरीर क्षीण हो जाने से वे विहार में असमर्थ हों। उनमें से किसी एक को प्रायश्चित्त आने पर वह मुनि योग्य गीतार्थ शिष्य के अभाव में अकुशल शिष्यों को गीतार्थ मुनि के पास भेजता है और उसके द्वारा आलोचना करता है। गूढ भाषा में कही हुई आलोचना सुनकर वे गीतार्थ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव, संहनन, धैर्य और बलादि का विचार कर स्वयं वहां आते हैं अथवा योग्य गीतार्थ शिष्य को समझाकर भेजते हैं। यदि वैसे शिष्य का भी उनके पास योग न हो तो आलोचना का संदेश लानेवाले के द्वारा ही गूढ अर्थ में अतिचार की शुद्धि अर्थात् प्रायश्चित्त देते हैं। यह आज्ञाव्यवहार है।
४. धारणाव्यवहार-किसी गीतार्थ संविग्न मुनि के द्रव्य-क्षेत्र-काल एवं भाव की अपेक्षा जिस अपराध में जो प्रायश्चित्त दिया हो, उसकी धारणा से वैसे अपराध में वैसे ही प्रायश्चित्त का प्रयोग करना धारणाव्यवहार है।
५. जीतव्यवहार-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-पुरुष प्रतिसेवना का और संहनन, धृति आदि की हानि का विचार कर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह जीतव्यवहार है।
- व्यवहारसूत्र में दस वर्ष के दीक्षित मुनि को भगवतीसूत्र पढ़ाने का जो विधान किया गया है वह प्रायश्चित्त-सूत्र-व्यवहार को लेकर लिखा गया है। आगमव्यवहार को लेकर चलने वाले महापुरुषों पर यह विधान लागू नहीं होता। आगम-व्यवहारी जो कहते हैं उसे उचित ही माना जाता है। उनके किसी व्यवहार में अनौचित्य के लिये कोई स्थान नहीं होता।
काली देवी के संबंध में आठ वर्षों की दीक्षा-पर्याय में अंग-शास्त्र पढ़ने का उल्लेख मिलता है, परंतु धन्य अनगार के संबंध में तो लिखा है कि उन्होंने नौ मास की दीक्षा-पर्याय में अंग-शास्त्र पढ़े । इससे स्पष्ट है कि आगमव्यवहार के सामने सूत्रव्यवहार नगण्य है। इसी दृष्टि से व्याख्याप्रज्ञप्ति, स्थानांग सूत्र और व्यवहार सूत्र में लिखा है-"आगमबलिया समणा निग्गंथा।"
इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि-व्यवहारसूत्र के अनुसार "दशवर्षीय" दीक्षित साधु को अंग पढ़ाए जाते हैं, पर यह विधान आगमव्यवहार वाले मुनियों पर लागू नहीं होता।