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[अन्तकृद्दशा करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके आठ उपवास किये , करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके सात उपवास किये, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके नव उपवास किये, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके आठ उपवास किये, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके नव उपवास किये, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके सात उपवास किये, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके आठ उपवास किये, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके छह उपवास किये,करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके सात उपवास किये, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके पांच उपवास किये, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके छह उपवास किये, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके चौला किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके पचौला किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके तेला किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके चौला किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके वेला किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके तेला किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके उपवास किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके वेला किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया, करके उपवास किया, करके सर्वकामगुणयुक्त पारणा किया।
इसी प्रकार चारों परिपाटियाँ समझनी चाहिए। एक परिपाटी में छह मास और सात दिन लगे। चारों परिपाटियों का काल दो वर्ष और अट्ठाईस दिन होते हैं यावत् महाकाली आर्या सिद्ध हुई।
विवेचन-आर्या महाकाली ने 'लघुसिंहनिष्क्रीडित तप' की आराधना की थी। प्रस्तुत सूत्र में इसे 'खुड्डागसीहनिक्कीलियं' कहा है, जिसका अर्थ है- जिस प्रकार गमन करता हुआ सिंह अपने अतिक्रान्त मार्ग को पीछे लौटकर फिर देखता है, उसी प्रकार जिस तप में अतिक्रमण किए हुए उपवास के दिनों को फिर से सेवन करके आगे बढ़ा जाए।
सिंहनिष्क्रीडित तप दो प्रकार का होता है, एक "लघुसिंहनिष्क्रीडित और दूसरा महासिंहनिष्क्रीडित तप"। प्रस्तुत अध्ययन में वर्णित आर्या महाकाली ने लघुसिंहनिष्क्रीडित तप की आराधना की। इस तप की भी चार परिपाटियाँ होती हैं। एक परिपाटी में छह मास और सात दिन लगते हैं । ३३ दिन पारणे में जाते हैं। इस तरह प्रथम परिपाटी ६ मास ७ दिन में सम्पन्न होती है। चारों परिपाटियों में दो वर्ष और अट्ठाईस दिन होते हैं।
अगले पृष्ठ पर प्रदर्शित स्थापना यन्त्र से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है।
जैसे कालीदेवी ने रत्नावली तप की प्रथम परिपाटी के पारणे में दूध घृतादि सभी पदार्थों को ग्रहण किया, दूसरी परिपाटी के पारणे में इन रसों को छोड़ दिया, तीसरी परिपाटी में लेपमात्र का भी त्याग कर दिया तथा चतुर्थ परिपाटी में उपवासों का पारणा आयंबिलों से किया, वैसे ही महाकाली देवी ने लघुसिंहनिष्क्रीडित तप की प्रथम परिपाटी में विगयों को ग्रहण किया, दूसरी में त्याग किया, तीसरी में लेपमात्र का भी त्याग किया, चौथी में उपवासों का पारणा आयंबिल तप से किया।
१. अन्तकृदशांग सूत्र-पत्र २८/१