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परिशिष्ट २]
[१८७ चौड़ा सब ओर से खाई से घिरा हुआ किला था। चारों दिशाओं में अनेक प्रासाद और किले थे। राम-कृष्ण के प्रासाद के पास प्रभासा नामक सभा थी। उसके समीप पूर्व में रैवतक गिरि, दक्षिण में माल्यवान शैल, पश्चिम में सौमनस पर्वत और उत्तर में गंधमादन गिरि थे।३ ___आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य शीलाङ्क, देवप्रभसूरि, आचार्य जिनसेन', आचार्य गुणभद्र आदि श्वेताम्बर व दिगम्बर ग्रन्थकारों ने तथा वैदिक हरिवंशपुराण, विष्णुपुराण और श्रीमद्भागवत११ आदि में द्वारका को समुद्र के किनारे माना है और कितने ही ग्रन्थकारों ने समुद्र से बारह योजन धरती लेकर द्वारका का निर्माण किया बताया है।
शक्राज्ञया वैश्रमणश्चक्रे रत्नमयी पुरीम्। द्वादशयोजनाया नवयोजनविस्तृताम् ॥ ३९९ ।। तुंगमष्टादशहस्तान्नवहस्तांश्च भूगतम्। विस्तीर्ण द्वादशहस्तांश्चक्रे वप्रं सुखातिकम्॥ ४००॥
-त्रिषष्टि. पर्व ८,सर्ग५, पृ. ९२ त्रिषष्टि, पर्व ८, सर्ग ५, पृ. ९२ चउप्पन्नमहापुरिसचरियं पाण्डवचरित्र सद्यो द्वारवती चक्रे कुबेरः परमां पुरीम्। नगरी द्वादशायामा, नवयोजनविस्तृतिः। वज्रप्राकार-वलया, समुद्र-परिखावृता॥
-हरिवंशपुराण ४१।१८-१९. अश्वाकृतिधरं देवं समारुह्य पयोनिधेः। गच्छतस्तेऽभवेन्मध्ये, पुरं द्वादशयोजनम्॥२०॥ इत्युक्तो नैगमाख्येन स्वरेण मधुसूदनः। चक्रे तथैव निश्चित्य सति पुण्ये न कः सखा । २१ ॥ द्वेधा भेदमयात् वार्धिर्भयादिव हरे रयात् ।।
-उत्तरपुराण ७१।२०-२३, पृ. ३७६ ९. हरिवंशपुराण २।५४ १०. विष्णुपुराण ५ । २३ । १३ ११. इति संमन्त्रय भगवान् दुर्ग द्वादश-योजनम्। अन्तः समुद्रे नगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत् ॥
-श्रीमद्भागवत १० अ.५०।५० (क) ता जह पुट्वि दिन्नं ठाणं नयरीए आइमचउण्हं । तुमए तिविट्ठपमुहाणं वासुदेवाणं सिंधुतडे ।।
-भव-भावना २५३७