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[अन्तकृद्दशा (९) भरतक्षेत्र
जम्बूद्वीप का दक्षिणी छोर का भूखण्ड भरतक्षेत्र के नाम से विश्रुत है। यह अर्धचन्द्राकार है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार इसके पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में लवणसमुद्र है। उत्तर दिशा में चूलहिमवंत पर्वत है। उत्तर से दक्षिण तक भरतक्षेत्र की लम्बाई ५२६ योजन ६ कला है और पूर्व से पश्चिम की लम्बाई १४४७१ योजन और कुछ कम ६ कला है। इसका क्षेत्रफल ५३,८०,६८१ योजन, १७ कला और १७ विकला है।
भरतक्षेत्र की सीमा में उत्तर में चूलहिमवंत नामक पर्वत से पूर्व में गंगा और पश्चिम में सिन्धु नामक नदियां बहती हैं । भरतक्षेत्र के मध्य भाग में ५० योजन विस्तारवाला वैताढ्य पर्वत है। जिसके पूर्व
और पश्चिम में लवणसमुद्र है। इस वैताढ्य से भरत-क्षेत्र दो भागों में विभक्त हो गया है जिन्हें उत्तर भरत और दक्षिण भरत कहते हैं। जो गंगा और सिन्धु नदियाँ चूलहिमवंत पर्वत से निकलती हैं वे वैताढ्य पर्वत में से होकर लवणसमुद्र में गिरती हैं। इस प्रकार इन नदियों के कारण, उत्तर भरत खण्ड तीन भागों में और दक्षिण भरत खण्ड भी तीन भागों में विभक्त होता है।
इन छह खण्डों में उत्तरार्द्ध के तीन खण्ड अनार्य कहे जाते हैं । दक्षिण के अगल-बगल के खण्डों में भी अनार्य रहते हैं। जो मध्यखण्ड है उसमें २५ ॥ देश आर्य माने गये हैं। उत्तरार्द्ध भरत उत्तर से दक्षिण तक २३८ योजन ३ कला है और दक्षिणार्द्ध भरत भी २३८ योजन ३ कला है।
जिनसेन के अनुसार भरत क्षेत्र में सुकोशल, अवन्ती, पूण्ड्र, अश्मक, कुरु, काशी, कलिंग, अंग, बंग, सुह्म, समुद्रक, काश्मीर, उशीनर, आनर्त, वत्स, पंचाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजांगल करहाट, महाराष्ट्र, सुराष्ट्र, आभीर, कोंकण. वनवास. आन्ध्र. कर्णाटक. कौशल. चोल. केरल दास, अभिसार, सौवीर, शूरसेन, अपरान्तक, विदेह सिन्धु, गान्धार, यवन, चेदि, पल्लव, काम्बोज, आरट्ट, वाल्हीक, तुरुष्क, शक और केकय आदि देशों की रचना मानी गई हैं।
बौद्ध साहित्य में अंग, मगध, काशी, कौशल, वज्ज, मल्ल, चेति, वत्स, कुरु, पंचाल, मत्स्य, शूरसेन, अश्मक, अवन्ती, गंधार और कम्बोज इन सोलह जनपदों के नाम मिलते हैं।१०
१. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सटीक, वक्षस्कार १, सूत्र १०, पृ.६५२ २. वही.१।१।६५-२ ३. लोकप्रकाश, सर्ग १६, श्लोक ३०-३१ ४. लोकप्रकाश, सर्ग १६, श्लोक ३३-३४ ५. वही. १६ । ४८ ६. वही. १६ । ३५ ७. वही. १६ । ३६ ८. आदिपुराण १६ । १५२-१५६ ९. (क) वही. १६, श्लोक ४४
(ख) बृहत्कल्पभाष्य १, ३२६३ वृत्ति, तथा १, ३२७५-३२८१. १०. अंगुत्तरनिकाय; पालिटेक्स्ट सोसायटी संस्करण: जिल्द १, पृ. २१३, जिल्द ४, पृ. २५२