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[अन्तकृद्दशा एक बार इन्द्रभूति सोमिल आर्य के निमंत्रण पर पावापुरी में होने वाले यज्ञोत्सव में गए थे। उसी अवसर पर भगवान् महावीर भी पावापुरी के बाहर महासेन उद्यान में पधारे हुए थे। भगवान् की महिमा को देखकर इन्द्रभूति उन्हें पराजित करने की भावना से भगवान् के समवसरण में आये, किन्तु वह स्वयं ही पराजित हो गये। अपने मन का संशय दूर हो जाने पर वह अपने पांच-सौ शिष्यों सहित भगवान् के शिष्य हो गये। गौतम प्रथम गणधर हुए।
आगमों में व आगमेत्तर साहित्य में गौतम के जीवन के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा मिलता है।
इन्द्रभूमि गौतम दीक्षा के समय ५० वर्ष के थे। ३० वर्ष साधु-पर्याय में और १२ वर्ष केवलीपर्याय में रहे। अपने निर्वाण के समय अपना गण सुधर्मा को सौंपकर गुणशीलक चैत्य में मासिक अनशन करके भगवान् के निर्वाण से १२ वर्ष बाद ९२ वर्ष की अवस्था में निर्वाण को प्राप्त हुए।
. शास्त्रों में गणधर गौतम का परिचय इस प्रकार का दिया गया है-वे भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य थे। सात हाथ ऊंचे थे। उनके शरीर का संस्थान और संहनन उत्कृष्ट प्रकार का था। सुवर्ण रेखा के समान गौर थे। उग्र तपस्वी, महा तपस्वी, घोर तपस्वी, घोर ब्रह्मचारी और संक्षिप्त विपुल-तेजोलेश्या सम्पन्न थे। शरीर में अनासक्त थे। चौदह पूर्वधर थे।मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्याय-चार ज्ञान के धारक थे। सर्वाक्षरसन्निपाती थे, वे भगवान् महावीर के समीप में उक्कुड आसन से नीचा सिर कर के बैठते थे। ध्यान-मुद्रा में स्थिर रहते हुए संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। (२) कृष्ण
कृष्ण वासुदेव। माता का नाम देवकी, पिता का नाम वसुदेव था। कृष्ण का जन्म अपने मामा कंस की कारा में मथुरा में हुआ था।
जरासन्ध के उपद्रवों के कारण श्रीकृष्ण ने ब्रज-भूमि को छोड़कर सुदूर सौराष्ट्र में जाकर द्वारका की रचना की। · श्रीकृष्ण भगवान् नेमिनाथ के परम भक्त थे। भविष्य में वह अमम नाम के तीर्थंकर होंगे। जैन साहित्य में, संस्कृत और प्राकृत उभय भाषाओं में श्रीकृष्ण का जीवन विस्तृत रूप में मिलता है।
द्वारका का विनाश हो जाने पर श्रीकृष्ण की मृत्यु जराकुमार के हाथों से हुई। श्रीकृष्ण का जीवन महान् था। (३) कोणिक
राजा श्रेणिक की रानी चेल्लणा का पुत्र, अंगदेश की राजधानी चम्पानगरी का अधिपति । भगवान् महावीर का परम भक्त।
कोणिक राजा एक प्रसिद्ध राजा है। जैनागमों में अनेक स्थानों पर उसका अनेक प्रकार से वर्णन आता है।
भगवती, औपपातिक और निरयावलिका में कोणिक का विस्तृत वर्णन है।
राज्य-लोभ के कारण इसने अपने पिता श्रेणिक को कैद में डाल दिया था। श्रेणिक की मृत्यु के बाद कोणिक ने अंगदेश में चम्पानगरी को अपनी राजधानी बनाया था।