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परिशिष्ट २]
[१८३ भिभसार और भंभासार नाम कैसे पड़ा? इस सम्बन्ध में श्रेणिक के जीवन का एक सुन्दर प्रसंग
श्रेणिक के पिता राजा प्रसेनजित कुशाग्रपुर में राज्य करते थे।
एक दिन की बात है, राजप्रासाद में सहसा आग लग गई। हरेक राजकुमार अपनी-अपनी प्रिय वस्तु को लेकर बाहर भागा। कोई गज लेकर, तो कोई अश्व लेकर, कोई रत्न-मणि लेकर । परन्तु श्रेणिक मात्र एक 'भंभा लेकर ही बाहर निकला था।
श्रेणिक को देखकर दूसरे भाई हंस रहे थे, पर पिता प्रसेनजित प्रसन्न थे; क्योंकि श्रेणिक ने अन्य सब कुछ छोड़कर एकमात्र राज्य-चिह्न की रक्षा की थी।
इस पर राजा प्रसेनजित ने उसका नाम भिंभिसार रखा। भिंभिसार ही संभवतः आगे चलकर उच्चारण-भेद से बिंबिसार बन गया।
भौगोलिक परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेक देशों, नगरों, पर्वतों व नदियों का उल्लेख हुआ है। भगवान् अरिष्टनेमि और भगवान् महावीर के युग में जिन देशों व नगरों के जो नाम थे आज उनके नामों में अत्यधिक परिवर्तन हो चुका है। उस समय वे समृद्ध थे तो आज वे खण्डहर मात्र रह गये हैं, और कितने ही पूर्ण रूप से नष्ट भी हो चुके हैं। कितने ही नगरों के सम्बन्ध में पुरातत्त्ववेत्ताओं ने काफी खोज की है। हम यहां पर प्रमुखप्रमुख स्थलों का संक्षेप में वर्णन कर रहे हैं। (१) कांकदी
भगवान् महावीर के समय यह उत्तर भारत की बहुत ही प्रसिद्ध नगरी थी। उस समय वहाँ का अधिपति जितशत्रु था। नगर के बाहर सहस्राम्रवन था, भगवान् जब कभी वहाँ पर पधारते तब वहाँ पर विराजते थे। भद्रा सार्थवाही के पुत्र धन्य, सुनक्षत्र तथा क्षेमक और धृतिधर आदि अनेक साधकों ने भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की थी।
पण्डित मुनिश्री कल्याणविजयजी के अभिमतानुसार वर्तमान में लछुआड से पूर्व में काकन्दी तीर्थ है, वह प्राचीन काकन्दी का स्थान नहीं है। काकन्दी उत्तर भारत में थी। नूनखार स्टेशन से दो मील और गोरखपुर से दक्षिण-पूर्व तीस मील पर दिगम्बर जैन जिस स्थल को किष्किधा अथवा खुखुंदोजी नामक तीर्थ मानते हैं वहीं प्राचीन काकन्दी होनी चाहिए। (२) गुणशील
राजगृह के बाहर गुणशील नामक एक प्रसिद्ध बगीचा था। भगवान् महावीर के शताधिक बार यहाँ समवसरण लगे थे। शताधिक व्यक्तियों ने यहाँ पर श्रमणधर्म व चारित्रधर्म ग्रहण किया था। भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्य गणधरों ने यहीं पर अनशन कर निर्वाण प्राप्त किया था। वर्तमान का गुणावा, जो नवादा स्टेशन से लगभग तीन मील पर है, वहीं महावीर के समय का गुणशील है। १. भेरी, संग्राम-विजय-सूचक वाद्य-विशेष।