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[अन्तकृद्दशा यावत् आराधना पूर्ण करके जहां आर्या चन्दना थीं, वहाँ आई और आर्या चंदना को वंदना-नमस्कार किया तदनन्तर बहुत से उपवास, बेला, तेला, चार, पांच आदि अनशन तप से अपनी आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी।
विवेचन-'अलेवाडं' अर्थात् जिस भोजन में विकृति का लेप भी न हो, जो भोजन घृतादि से चुपड़ा हुआ न हो, एकदम रूखा हो, उसे अलेपकृत कहते हैं।
___ 'आयंबिल'-शब्द प्राकृतभाषा का है। संस्कृत में इसके आचाम्ल, आचामाम्ल तथा आयामाम्ल, ये तीन रूप बनते हैं। इसमें एक ही बार घृत-दूध-दही-तेल-गुड़-शक्कर आदि से रहित नीरस भोजन करना होता है। यथा-चावल, उड़द, सत्तू, भुने हुए चने आदि।
रत्नावली तप की चारों परिपाटियों में पांच वर्ष दो मास और २८ दिन लगते हैं। काली आर्या की अन्तिम साधना : सिद्धि
४-तए णं सा काली अज्जा तेणं उरालेणं जाव[विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धण्णेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं उदारेणं महाणुभागेणं तंवोकम्मेणं सक्का लक्खा निम्मंसा अद्विचम्मावणद्धा किडिकिडियाभया किसा] धमणिसंतया जाया यावि होत्था। से जहा इंगालसगडी वा जाव [ उण्हे दिण्णा सुक्का समाणी ससदं गच्छइ, ससदं चिट्ठइ, एवामेव कालीए वि अज्जा ससदं गच्छइ, ससई चिट्ठइ, उवचिए तवेणं, अवचिए मंस-सोणिएणं] सुहुयहुयासणे इव भासरासिपलिच्छण्णा तवेणं, तेएणं, तवतेयसिरीए अईव-अईव उवसोहेमाणी-उवसोहेमाणी चिट्ठइ।
तए णं तीसे कालीए अन्जाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकाले अयमज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था, जहा खंदयस्स चिंता जाव अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे तावता मे सेयं कल्लं जाव जलंते अज्जचंदणं अजं आपुच्छित्ता अज्जचंदणाए अन्जाए अब्भणुण्णायाए समाणीए संलेहणा-झूसणा-झूसियाए भत्तपाण-पडियाइक्खाए कालं अणवकंखमाणीए विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं जेणेव अज्जचंदणा अज्जा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अज्जचंदणं अजं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'इच्छामिणं अन्जो! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी संलेहणा जाव' विहरित्तए। 'अहासुहं।'
___तए णं सा काली अज्जा अज्जचंदणाए अब्भणुण्णाया समाणी संलेहणा-झूसणा-झूसिया जावरे विहरइ। तए णं सा काली अज्जा अज्जचंदणाए अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुण्णाइं अट्ठ संवच्छराइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्टि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता, जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावे जाव चरिमुस्सासेहिं सिद्धा। निक्खेवओ।
तत्पश्चात् काली आर्या, उस उराल-प्रधान, [विपुल, दीर्घकालीन, विस्तीर्ण, सश्रीक-शोभासम्पन्न, गुरु द्वारा प्रदत्त अथवा प्रयत्नसाध्य, बहुमानपूर्वक गृहीत, कल्याणकारी, नीरोगता-जनक, शिवमुक्ति के कारण, धन्य, मांगल्य-पापविनाशक, उदग्र-तीव्र, उदार-निष्काम होने के कारण औदार्य वाले, उत्तम-अज्ञान अन्धकार से रहित और महान् प्रभाववाले, तपःकर्म से शुष्क-नीरस शरीरवाली, भूखी,
१. वर्ग ३. सूत्र २२. २. ऊपर आ चुका है।
३. वर्ग ५ सूत्र ६