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अष्टम वर्ग ]
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रूक्ष, मांसरहित] और नसों से व्याप्त हो गयी थी। जैसे कोई कोयलों से भरी गाड़ी हो, सूखी लकड़ियों से भरी गाड़ी हो, पत्तों से भरी गाड़ी हो, धूप में डालकर सुखाई हो अर्थात् कोयला, लकड़ी पत्ते आदि खूब सुखा लिये गये हों और फिर गाड़ी में भरे गये हों, तो वह गाड़ी खड़खड़ आवाज करती हुई चलती है और ठहरती है, उसी प्रकार काली आर्या हाड़ों की खड़खड़ाहट के साथ चलती थी और खड़खड़ाहट के साथ खड़ी रहती थी । वह तपस्या से तो उपचित- वृद्धि को प्राप्त थी, मगर मांस और रुधिर से अपचित - ह्रास को प्राप्त हो गई थी ।] भस्म के समूह से आच्छादित अग्नि की तरह तपस्या के तेज से देदीप्यमान वह तपस्तेज की लक्ष्मी से अतीव शोभायमान हो रही थी ।
एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में काली आर्या के हृदय में स्कन्दकमुनि के समान विचार उत्पन्न हुआ - " इस कठोर तप साधना के कारण मेरा शरीर अत्यन्त कृश हो गया है। तथापि जब तक मेरे इस शरीर में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार- पराक्रम है, मन में श्रद्धा, धैर्य एवं वैराग्य है तब तक मेरे लिये उचित है कि कल सूर्योदय होने के पश्चात् आर्या चंदना से पूछकर उनकी आज्ञा प्राप्त होने पर, संलेखना झूषणा का सेवन करती हुई भक्तपान का त्याग करके मृत्यु के प्रति निष्काम हो कर विचरण करूं।" ऐसा सोचकर वह अगले दिन सूर्योदय होते ही जहाँ आर्या चंदना थी वहाँ आई और आर्या चन्दना को वंदना - नमस्कार कर इस प्रकार बोली- " हे आर्ये! आपकी आज्ञा हो तो मैं संलेखना झूषणा करती हुई विचरना चाहती हूँ ।" आर्या चन्दना ने कहा - "हे देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसा करो । सत्कार्य में विलम्ब न करो। " तब आर्या चन्दना की आज्ञा पाकर काली आर्या संलेखना झूषणा ग्रहण करके यावत् विचरने लगी । काली आर्या ने आर्यचन्दना आर्या के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और पूरे आठ वर्ष तक चारित्रधर्म का पालन करके एक मास की संलेखना आत्मा को झूषित कर साठ भक्त का अनशन पूर्ण कर, जिस हेतु से संयम ग्रहण किया था यावत् उसको अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक पूर्ण किया और सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गई।
विवेचन - आर्या काली ने अपनी गुरुणी से ग्यारह अंगशास्त्रों का अध्ययन किया, इस कथन से यह बात भली भांति प्रमाणित हो जाती है कि जिस प्रकार साधु को अंगशास्त्र पढ़ने का अधिकार है उसी प्रकार साध्वी को भी है। इसके अतिरिक्त काली देवी की जीवनी से यह भी सिद्ध हो जाता है कि परमकल्याणरूप निर्वाणपद की प्राप्ति में साधु और साध्वी दोनों का समान अधिकार है ।
व्यवहारसूत्र के दसवें उद्देशक में साधु-साध्वी के पाठ्य-क्रम का वर्णन किया गया है । वहाँ लिखा है कि दस वर्ष की दीक्षावाला साधु व्याख्याप्रज्ञप्ति – (भगवती) सूत्र पढ़ सकता है, इससे पहले नहीं। परन्तु काली देवी की दीक्षा आठ वर्ष की थी, उसने ग्यारह अंग पढ़े। ऐसी दशा में यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि व्यवहारसूत्रानुसार काली देवी ने अंगशास्त्र पढ़ने की अधिकारिणी न होते हुए भी अंगशास्त्रों का अध्ययन क्यों किया?
उत्तर में निवेदन है कि स्थानांग भगवती आदि सूत्रों में पांच प्रकार के व्यवहार बतलाए गये हैं । मोक्षाभिलाषी आत्माओं की प्रवृत्ति और निवृत्ति एवं तत्कारणक ज्ञान विशेष को व्यवहार कहते हैं। पांच व्यवहार इस प्रकार हैं
१. आगमव्यवहार – केवलज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, अवधिज्ञान, चौदह पूर्व, दश पूर्व और नव पूर्व का अध्ययन आगम कहलाता है। आगम से प्रवृत्ति एवं निवृत्तिरूप व्यवहार को आगमव्यवहार कहते हैं ।