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षष्ठ वर्ग]
[१३५ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उन स्थविर मुनियों को सम्बोधित करके कहने लगे-"हे आर्यों! प्रकृति से भद्र यावत् प्रकृति से विनीत मेरा अंतेवासी अतिमुक्त कुमार, इसी भव मे सिद्ध होगा यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा। अतः हे आर्यो ! तुम अतिमुक्त कुमार श्रमण की हीलना, निंदा, खिंसना, गर्हा और अपमान मत करो। किन्तु तुम अग्लान भाव से अतिमुक्त कुमार श्रमण को ग्रहण करो। उसकी सहायता करो और आहार पानी के द्वारा विनयपूर्वक वैयावृत्य करो। अतिमुक्त कुमार श्रमण चरमशरीरी है और इसी भव में सब कर्मों का क्षय करने वाला है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा यह वृत्तान्त सुनकर उन स्थविर मुनियों ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार किया। फिर वे स्थविर मुनि अतिमुक्त कुमार श्रमण को अग्लान भाव से स्वीकार कर यावत् उनकी वैयावृत्य करने लगे।
सोलहवां अध्ययन अलक्ष
२०-तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नयरी, काममहावणे चेइए। तत्थ णं वाणारसीए अलक्के नामं राया होत्था।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव' विहरइ। परिसा निग्गया। तए णं अलक्के राया इमीसे कहाए लद्धडे हट्ठतुढे जहा कोणिए जाव धम्मकहा।
तए णं से अलक्के राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए जहा उदायणे तहा निक्खंते, नवरं जेट्टपुत्तं रजे अभिसिंचइ। एक्कारस अंगाई। बहू वासा परियाओ जावरे विपुले सिद्धे।
एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं छट्ठस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते।
उस काल और उस समय वाणारसी नगरी में काममहावन नामक उद्यान था। उस वाणारसी नगरी में अलक्ष नामक राजा था।
उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर यावत् काममहावन उद्यान में पधारे। जनपरिषद् प्रभु वंदना को निकली, राजा अलक्ष भी प्रभु महावीर के पधारने की बात सुनकर प्रसन्न हुआ और कोणिक राजा के समान वह भी यावत् प्रभु की सेवा में उपासना करने लगा। प्रभु ने धर्मकथा कही।
तब अलक्ष राजा ने श्रमण भगवान् महावीर के पास उदायन की तरह श्रमणदीक्षा ग्रहण की। विशेषता यह कि उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सिंहासन पर बिठाया। ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। बहुत वर्षों तक श्रमणचारित्र का पालन किया यावत् विपुलगिरि पर्वत पर जाकर सिद्ध हुए।
इस प्रकार 'हे जंबू! श्रमण भगवान् महावीर ने अष्टम अंग अंतगडदशा के छठे वर्ग का यह अर्थ कहा है।'
विवेचन-प्रस्तुत सोलहवें अध्ययन में वाणारसी नगरी के अलक्ष नरेश के जीवन का उल्लेख किया गया है। अलक्ष नरेश भगवान् महावीर के चरणों के परम श्रद्धालु भक्त थे। इनकी प्रभु चरणों में निष्ठा एवं आस्था का दिग्दर्शन कराने के लिए सूत्रकार ने चंपा-नरेश कूणिक की ओर संकेत किया है, जिसका १. वर्ग ६, सूत्र १५ २. उववाई ३. वर्ग १, सूत्र ९