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[अन्तकृद्दशा प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त कम्माययणेहिं' शब्द का अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है- 'कम्माययणेहि त्ति, कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनामायतनानि आदानानि बंधहेतव इत्यर्थः। पाठान्तरेण 'कम्मावयणेहिं त्ति' तत्र कर्मापतनानि यैः कर्मापतति-आत्मनि संभवति, तानि तथा'- अर्थात् 'कर्म' शब्द ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि कर्मों का संसूचक है और 'आयतन' शब्द बंध के कारणों का परिचायक है। कहीं-कहीं कम्माययणेहिं' के स्थान पर 'कम्मावयणेहिं' ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है। जिन कारणों से कर्म आत्म-सरोवर में गिरते हैं, आत्म-प्रदेशों से सम्बन्धित होते हैं, उन्हें कर्मापतन कहते हैं। दोनों का आशय एक ही है।
___ अतिमुक्त कुमार के जीवन सम्बन्धी अंतगडसूत्र के इस वर्णन के अतिरिक्त भगवतीसूत्र के चतुर्थ उद्देशक में मुनि अतिमुक्त के जीवन की एक घटना का बड़ा सुंदर विवेचन मिलता है। यहां आवश्यक होने से उसका उल्लेख किया जा रहा है
. 'तेण कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अइमुत्ते णामं कुमारसमणे पगइभद्दए, जाव-विणीए। तए णं से अइमुत्ते कुमारसमणे अण्णया कयाई महावुट्ठिकायंसि णिवयमाणंसि कक्खपडिग्गह-रयहरणमायाए बहिया संपट्ठिए विहाराए। तए णं अइमुत्ते कुमारसमणे वाहयं वहमाणं पासइ, पासित्ता मट्टियाए पालिं बंधई, बंधित्ता ‘णाविया मे णाविया मे' णाविओ विव णावमयं पडिग्गहं उदगंसि कटु पव्वाहमाणे पव्वाहमाणे अभिरमई, तं च थेरा अदक्खु, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी
एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी अइमुत्ते णामं कुमारसमणे भगवं, से णं भंते! अइमुत्ते कुमारसमणे कइहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिहिइ जाव अंतं करेहिइ?
अजो! त्ति समणे भगवं महावीरे ते थेरे एवं वयासी– एवं खलु अजो! ममं अंतेवासी अइमुत्ते णामं कुमारसमणे पगइभद्दए, जाव-विणीए, से णं अइमुत्ते कुमारसमणे इमेण चेव भवग्गहणेणं सिज्झिहिइ जाव अंतं करिहिइ तं मा णं अजो! तुब्भे अइमुत्तं कुमारसमणं हीलेह, निंदह, खिंसह, गरहह, अवमण्णह, तुब्भे णं देवाणुप्पिया! अइमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हह, अगिलाए उवगिण्हह, अगिलाए भत्तेणं पाणेणं विणएणं वेयावडियं करेह। अइमुत्ते णं कुमारसमणे अंतकरे चेव, अंतिमसरीरिए चेव; तए णं ते थेरा भगवंतो समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ; अइमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हंति, जाव वेयावडियं करेंति।'
अर्थात् – उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य अतिमुक्त नाम कुमार श्रमण थे। वे प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे। वे अतिमुक्त कुमार श्रमण किसी दिन महावर्षा बरसने पर अपना रजोहरण कांख-बगल में लेकर तथा पात्र लेकर बाहर स्थंडिल-हेतु गये। जाते हुए, अतिमुक्त कुमार श्रमण ने मार्ग में बहते हुए पानी के एक छोटे नाले को देखा। उसे देखकर उन्होंने उस नाले की मिट्टी की पाल बांधी। इसके बाद जिस प्रकार नाविक अपनी नाव को पानी में छोड़ता है, उसी तरह उन्होंने भी अपने पात्र को उस पानी छोड़ा और 'यह मेरी नाव है, यह मेरी नाव है'-ऐसा कह कर पात्र को पानी में तिराते हुए क्रीड़ा करने लगे। अतिमुक्त कुमार श्रमण को ऐसा करते हुए देखकर स्थविर मुनि उन्हें कुछ कहे बिना ही चले आए और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से उन्होंने पूछा
हे भगवन् ! आपका शिष्य अतिमुक्त कुमार श्रमण कितने भव करने के बाद सिद्ध होगा? यावत् सब दुखों का अन्त करेगा?