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[अन्तकृद्दशा __ अन्त में कृष्ण की अनिच्छा होने पर भी बलराम कृष्ण को साथ लेकर दक्षिण समुद्र के तट पर बसी पांडवों की राजधानी पाण्डुमथुरा की ओर चल दिए। सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में जो "दाहिणबेलाए अभिमुहे पांडुमहुरं संपत्थिए" ये पद दिये हैं ये उक्त कथानक की ओर ही संकेत कर रहे हैं।
"जराकुमारेणं" का अर्थ है जराकुमार ने। जराकुमार यादववंशीय एक राजकुमार था, जो महाराज श्रीकष्ण का भाई था। भगवान अरिष्टनेमि ने भविष्यवाणी करते हए कहा था कि जराकमार के बाण से वासुदेव की मृत्यु होगी। यह जानकार जराकुमार को बड़ा दुःख हुआ। उसने निश्चय किया कि मैं द्वारका छोड़कर कोशाम्रवन में चला जाता हूं, वहीं जीवन के शेष क्षण व्यतीत कर दूंगा, इससे श्रीकृष्ण की मृत्यु का कारण बनने से बच जाऊंगा। अपने निश्चय के अनुसार वह कोशाम्रवन में रहने लगा था। पर भवितव्यता कौन टाल सकता था? द्वारका के जल जाने पर श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलराम के साथ पाण्डुमथुरा जा रहे थे। रास्ते में कोशाम्रवन आया। महाराज श्रीकृष्ण को प्यास लगी, बलराम पानी लेने चले गये। पीछे श्रीकृष्ण एक वृक्ष के नीचे पीत वस्त्र ओढ़कर विश्राम करने लगे। उन्होंने एक पांव पर दूसरा पांव रखा हुआ था। वासुदेव के पांव में पद्म का चिह्न होता है। दूर से जैसे मृग की आँख चमकती है ठीक उसी प्रकार श्रीकृष्ण के पांव में पद्म-चिह्न चमक रहा था। उधर जराकुमार उसी वन में भ्रमण कर रहा था। उसे किसी शिकार की खोज थी। जब वह वटवृक्ष के निकट आया तो उसे दूर से ऐसा लगा जैसे कोई मृग बैठा है। उसने तत्काल धनुष पर बाण चढ़ाया, और छोड़ दिया। बाण लगते ही कृष्ण छटपटा उठे। उन्हें ध्यान आया कि बाण कहीं जराकुमार का तो नहीं? जराकुमार को सामने देखकर उनका विचार सत्य प्रमाणित हुआ। जराकुमार के क्षमा मांगने पर वे बोले
जराकुमार! तुम्हारा इसमें क्या दोष है? भवितव्यता ही ऐसी थी। भगवान् अरिष्टनेमि की भविष्यवाणी अन्यथा कैसे हो सकती थी? बलराम के आने का समय निकट देखकर कृष्ण बोले-जराकुमार! तुम यहाँ से भाग जाओ, अन्यथा बलराम के हाथों से तुम बच नहीं सकोगे। जिस अधम कार्य से जराकुमार बचना चाहता था, जिस पाप से बचने के लिए उसने द्वारका नगरी को छोड़कर कोशाम्रवन का वास अंगीकार किया था, उसी पाप को अपने हाथों से होते देखकर उसका हृदय रो पड़ा। पर क्या कर सकता था? श्रीकष्ण की वेदना उग्र हो गई.साथ ही उनकी शान्ति भंग हो गई। कहने लगे-मेरा घातक मेरे हाथों से बचकर निकल गया। मुझे तो उसे समाप्त कर ही देना चाहिए था। रौद्रध्यान अपने यौवन पर आ गया और उसी रौद्रध्यानपूर्ण स्थिति में श्रीकृष्ण का देहान्त हो गया।
"तच्चाए बालुयप्पभाए पुढवीए उज्जलिए नरए"-तृतीयस्यां बालुकाप्रभायां पृथिव्यामुज्ज्वलिते नरके–अर्थात् बालुकाप्रभा नामक तीसरी पृथ्वी के उज्ज्वलित नरक में।
जैन-दृष्टि से यह जगत् ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक इन तीन लोकों में विभक्त है। अधोलोक में सात नरक हैं। अधोलोक के जिन स्थानों में पैदा होकर जीव अपने पापों का फल भोगते हैं, वे स्थान नरक कहलाते हैं। ये सात पृथ्वियों में विभक्त हैं, जिनके नाम हैं-घम्मा, वंसा, शैला, अंजना, रिट्ठा, मघा तथा माघवई। इनके-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातम:प्रभा ये सात गोत्र हैं।
शब्दार्थ से सम्बन्ध न रखने वाली संज्ञा को 'नाम' कहते हैं और शब्दार्थ का ध्यान रख कर किसी वस्तु को जो नाम दिया जाता है वह 'गोत्र' कहलाता है । बालुकाप्रभा तीसरी भूमि है । बालू रेत अधिक होने