________________
११४]
[अन्तकृद्दशा इस प्रकार बहुत से नागरिकों के मुख से भगवान् के पधारने के समाचार सुनकर सुदर्शन सेठ के मन में इस प्रकार, चिंतित, प्रार्थित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-"निश्चय ही श्रमण भगवान् महावीर नगर में पधारे हैं और बाहर गणशीलक उद्यान में विराजमान हैं. इसलिये मैं जाऊं और श्रमण भगवान
को वंदन-नमस्कार करूं।" ऐसा सोचकर वे अपने माता-पिता के पास आये और हाथ जोड़कर
बोले
___हे माता-पिता! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी नगर के बाहर उद्यान में विराज रहे हैं। अतः मैं चाहता हूँ कि मैं जाऊं और उन्हें वंदन-नमस्कर करूं। उनका सत्कार करूं, सन्मान करूं। उन कल्याण के हेतुरूप, दुरितशमन (पापनाश) के हेतुरूप, देव स्वरूप और ज्ञानस्वरूप भगवान् की विनयपूर्वक पर्युपासना करूं।
__यह सुनकर माता-पिता, सुदर्शन सेठ से इस प्रकार बोले- "हे पुत्र ! निश्चय ही अर्जुन मालाकार यावत् मनुष्यों को मारता हुआ घूम रहा है इसलिये हे पुत्र! तुम श्रमण भगवान् महावीर को वंदन करने के लिये नगर के बाहर मत निकलो। नगर के बाहर निकलने से सम्भव है तुम्हारे शरीर को हानि हो जाय। अत: यही अच्छा है कि तुम यहीं से श्रमण भगवान् महावीर को वंदन- नमस्कार कर लो।"
तब सुदर्शन सेठ ने माता-पिता से इस प्रकार कहा- "हे माता-पिता! जब श्रमण भगवान् महावीर यहां पधारे हैं, यहां समवसृत हुए हैं और बाहर उद्यान में विराजमान हैं तो मैं उनको यहीं से वंदना- नमस्कार करूं, यह कैसे हो सकता है? अतः हे माता-पिता! आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं वहीं जाकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन करूं, नमस्कार करूं यावत् उनकी पर्युपासना करूं।"
सुदर्शन सेठ को माता-पिता जब अनेक प्रकार की युक्तियों से नहीं समझा सके, तब माता-पिता ने अनिच्छापूर्वक इस प्रकार कहा-“हे पुत्र ! फिर जिस प्रकार तुम्हें सुख उपजे वैसा करो।"
इस प्रकार सुदर्शन सेठ ने माता-पिता से आज्ञा प्राप्त करके स्नान किया और धर्मसभा में जाने योग्य शुद्ध मांगलिक वस्त्र धारण किये [थोड़े भारवाले, बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को सजाया] फिर अपने घर से निकला और पैदल ही राजगह नगर के मध्य से चलकर मुद्गरपाणि यक्ष के यक्षायतन के न अति दूर और न अति निकट से होते हुए जहाँ गुणशील नामक उद्यान और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे उस ओर जाने लगा।
विवेचन- इस सूत्र में "इहमागयं, इह पत्तं, इह समोसढं-" ये तीनों पद समानार्थक प्रतीत होते हैं, पर टीकाकार ने इस सम्बन्ध में जो अर्थ-भेद दर्शाया है वह इस प्रकार है
"इहमागयमित्यादि-इह नगरे आगतं प्रत्यासन्नत्वेऽप्येवं व्यपदेशः स्यात्, अतः उच्यते- इह सम्प्राप्तं, प्राप्तावपि विशेषाभिधानमुच्यते, इह समवसृतं धर्म-व्याख्यानप्रवर्तनया व्यवस्थितम् अथवा इह नगरे पुनरिहोद्याने पुनरिह साधूचितावग्रहे इति।" अर्थात् "इहमागयं" का अर्थ है - इस नगर में आए हुए। पर यह तो नगर के पास पहुंचने पर भी कहा जा सकता है, अतः सूत्रकार ने 'इहपत्तं' कहा है। इस का अर्थ है ---- इस नगर में पहुंचे हुए। इसी बात को अधिक स्पष्ट करने के लिये "इह समोसढ़े" यह लिखा है। इसका भाव है-धर्म-व्याख्यान में लगे हुए। अथवा 'इहमागयं' का अर्थ है - इस नगर में आए हुए, 'इह पत्तं' का अर्थ है- इस उद्यान में आए हुए तथा इह समोसढं' का अर्थ है - साधुओं के योग्य स्थान पर ठहरे हुए।