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[ अन्तकृद्दशा
तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवास । तं जहा - काइयाए वाइयाए माणसियाए । काइयाए ताव संकुइयग्गहत्थपाए णच्चासण्णे नाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे, अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ । वाइयाए - जं जं भगवं वागरेइ " एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते! इच्छियमेयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते! से जहेयं तुब्भे वदह " अपडिकूलमाणे पज्जुवासइ | माणसियाए महया संवेगं जणइत्ता तिव्वधम्माणुरागरत्तो ] पज्जुवासइ ।
तए णं समणे भगवं महावीरे सुदंसणस्स समणोवासगस्स अज्जुणयस्स मालागारस्स तीसे य मह महालिया परिसाए मज्झगए विचित्तं धम्ममाइक्खइ । सुदंसणे पडिगए ।
इधर वह अर्जुन माली मुहूर्त भर (कुछ समय) के पश्चात् आश्वस्त एवं स्वस्थ होकर उठा और सुदर्शन श्रमणोपासक को सामने देखकर इस प्रकार बोला
"देवानुप्रिय ! आप कौन हो ? तथा कहाँ जा रहे हो?"
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यह सुनकर सुदर्शन श्रमणोपासक ने अर्जुन माली से इस तरह कहा -
'देवानुप्रिय ! मैं जीवादि नव तत्त्वों का ज्ञाता सुदर्शन नामक श्रमणोपासक हूं और गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार करने जा रहा हूँ।'
यह सुनकर अर्जुन माली सुदर्शन श्रमणोपासक से इस प्रकार बोला – 'हे देवानुप्रिय ! मैं भी तुम्हारे साथ श्रमण भगवान् महावीर को वंदना - नमस्कार करना चाहता हूँ, उनका सत्कार-सम्मान करना चाहता हूँ, कल्याणस्वरूप, मंगलस्वरूप, दिव्यस्वरूप एवं ज्ञानस्वरूप भगवान् की पर्युपासना करना चाहता हूँ ।'
सुदर्शन ने अर्जुन माली से कहा - 'देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो।'
इसके बाद सुदर्शन श्रमणोपासक अर्जुन माली के साथ जहाँ गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आया और अर्जुन माली के साथ श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार [ आदक्षिण प्रदक्षिणा की, वन्दना की और उन्हें नमस्कार किया । वन्दना - नमस्कार करके, तीन प्रकार की पर्युपासना करने लगा, यथा – कायिकी वाचिकी और मानसिकी। हाथ-पैर को संकुचित करके, न अधिक दूर न अधिक निकट ऐसे स्थान पर स्थित होकर ( धर्मोपदेश) श्रवण करते हुए - नमस्कार करते हुए, भगवान् की ओर मुंह रखकर विनयपूर्वक हाथ जोड़े हुए पर्युपासना करना कायिकी उपासना है । वाचिकी उपासना है - जो जो भगवान् कहते, उसे 'यह ऐसा ही है, भंते! यही तथ्य है, भंते! यही सत्य है, भंते! निःसंदेह ऐसा ही है, भंते! यही इष्ट है, भंते! यही स्वीकृत है, भंते! यही वांछित गृहीत है, भंते! जैसा कि आप यह कह रहे हैंयों अप्रतिकूल बनकर पर्युपासना करना। मानसिकी उपासना अर्थात् - अति संवेग ( उत्साह या मुमुक्षु भाव) अपने में उत्पन्न करके, धर्म के अनुराग में तीव्रता से अनुरक्त होना । ']
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उस समय श्रमण भगवान् महावीर ने सुदर्शन श्रमणोपासक, अर्जुन माली और उस विशाल सभा के सम्मुख धर्मकथा कही । सुदर्शन धर्मकथा सुनकर अपने घर लौट गया।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है मुद्गरपाणि यक्ष द्वारा होने वाले उपद्रव के समाप्त होने पर सुदर्शन ने अपने आमरण अनशन को समाप्त कर दिया। अनशन समाप्त करने के अनन्तर सेठ सुदर्शन
बड़ी गंभीरता एवं दूरदर्शिता से काम लिया । वे अर्जुन माली को मूच्छित दशा में देखकर भयभीत नहीं हुए और उन्होंने वहां से जाने का भी प्रयत्न नहीं किया, प्रत्युत वे वहाँ बड़ी शान्ति के साथ बैठे रहे । कारण