Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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षष्ठ वर्ग]
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में आहार
में प्रविष्ट होता है, उसी प्रकार अर्जुन मुनि मुख के दोनों भागों का स्पर्श किए बिना केवल मुख रख कर गले के नीचे उतार लेते हैं । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार बिल में प्रवेश करते समय सर्प अपने अंगों का उससे स्पर्श नहीं करता, बड़े संकोच से उसमें प्रवेश करता है, उसी प्रकार किसी प्रकार के आस्वाद की अपेक्षा न करते हुए रागद्वेष से रहित होकर मुख में जैसे स्पर्श नहीं हुआ हो, इस प्रकार से केवल क्षुधा की निवृत्ति के उद्देश्य से अर्जुन मुनि आहार सेवन करते हैं । इस कथन से इनकी रसविषयक मूर्च्छा के आत्यन्तिक अभाव का संसूचन किया गया । संयमी व्यक्ति की उत्कृष्ट साधना रसनेन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना है। अर्जुन मुनि ने इस साधना के रहस्य को भलीभांति समझ लिया था और उसे जीवन में उतार भी लिया था।
'तेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं' - तेन पूर्वभणितेन उदारेण-प्रधानेन, विपुलेन - विशालेन, भगवता दत्तेन, प्रगृहीतेन, उत्कृष्टभावतः स्वीकृतेन, महानुभागेनमहान् अनुभागः प्रभावो यस्य, तेन तपः कर्मणा । यहाँ पर अर्जुन मुनि ने जो तप आराधन किया है उस तप की महत्ता को अभिव्यक्त किया गया है। प्रस्तुत पाठ में तप कर्म विशेष्य है और उदार आदि उसके विशेषण हैं। इनकी अर्थविचारणा इस प्रकार है.
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तेणं - यह शब्द पूर्ण प्रतिपादित तप की ओर संकेत करता है। अर्जुन मुनि के साधना - प्रकरण में बताया गया कि अर्जुन मुनि जब नगर में भिक्षार्थ जाते थे तब उनको लोगों की ओर से बहुत बुरा भला कहा जाता था, उनका अपमान किया जाता था, मार-पीट की जाती थी, तथापि ये सब यातनाएं शांतिपूर्वक सहन करते थे। इसके अतिरिक्त उनको अन्न मिल जाता तो पानी नहीं मिलता था, कहीं पानी मिल गया तो अन्न नहीं मिलता था। यह सब कुछ होने पर भी अर्जुन मुनि कभी अशान्त नहीं हुए, दो दिनों के उपवास के पारणे में भी सन्तोषजनक भोजन न पाकर उन्होंने कभी ग्लानि अनुभव नहीं की। इस प्रकार के तप को सूत्रकार ने 'तेणं' इस पद से ध्वनित किया है ।
'उदार' - शब्द का अर्थ है - प्रधान । प्रधान सब से बड़े को कहते हैं। भूखा रहना आसान है, रसनेन्द्रिय पर नियंत्रण भी किया जा सकता है, भिक्षा द्वारा जीवन का निर्वाह करना भी संभव है पर लोगों से अपमानित होकर तथा मार-पीट सहन कर तपस्या की आराधना करते चले जाना बच्चों का खेल नही है। यह बड़ा कठिन कार्य है, बड़ी कठोर साधना है, इसी कारण सूत्रकार ने अर्जुनमुनि के तप को उदार अर्थात् सब से बड़ा कहा है।
'विपुल' - विशाल को कहते हैं। एक बार कष्ट सहन किया जा सकता है, दो या तीन बार कष्ट का सामना किया जा सकता है, परन्तु लगातार छह महीनों तक कष्टों की छाया तले रहना कितना कठिन कार्य है ? यह समझना कठिन नहीं है। जिधर जाओ उधर अपमान, जिस घर में प्रवेश करो वहां अनादर की वर्षा, सम्मान का कहीं चिह्न भी नहीं। ऐसी दशा में मन को शान्त रखना, , क्रोध को निकट न आने देना, बड़ा ही विलक्षण साहस है और बड़ी विकट तपस्या है, अपूर्व सहिष्णुता है । संभव है इसीलिये सूत्रकार ने अर्जुन मुनि की तप:साधना को विपुल - विशाल बड़ी कहा है।
'प्रदत्त'- का अर्थ है-दिया हुआ । अर्जुन मुनि जिस तप की साधना कर रहे थे, यह तप उन्होंने बिना किसी से पूछे अपने आप ही आरम्भ नहीं किया, प्रत्युत भगवान् महावीर की आज्ञा प्राप्त करके आरम्भ किया था। अतएव सूत्रकार ने इस तप को प्रदत्त कहा है।