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[अन्तकृद्दशा कहना। 'हीलन्ति'-अनादर-अपमान करते हैं। 'निन्दन्ति'-निंदा करते हैं, निन्दा का अर्थ है-किसी के दोषों का वर्णन करना। 'खिंसंति'-खीजते हैं, झुंझलाते हैं, कुढ़ते हैं, दुर्वचन कहकर क्रोधावेश में लाने का प्रयत्न करते हैं । 'गरिहंति'-दोषों को प्रकट करते हैं। तज्जेंति'-तर्जना करते हैं, डांटते हैं, डपटते हैं, तर्जनी
आदि अंगुलियों द्वारा भयोत्पन्न करने का प्रयत्न करते हैं। तालेंति'-लाठियों और पत्थरों आदि से मारते हैं। 'सम्मं सहति, सम्मं खमति, तितिक्खइ, अहियासेति'-इन पदों की व्याख्या करते हुए टीकाकार अभयदेवसूरि लिखते हैं
___ 'सहते इत्यादीनि एकार्थानि पदानीति केचित् । अन्ये तु सहते भयाभावेन, क्षमते कोपाभावेन, तितिक्षते दैन्याभावेन, अधिसहते आधिक्येन सहते इति।' अर्थात् कुछ आचार्य सहते आदि चारों पदों को एकार्थक मानते हैं, कुछ इनका अर्थभेद करते हुए कहते हैं- सहते-बिना किसी भय से संकट सहन करते हैं । क्षमते-क्रोध से दूर रहकर शान्त रहते हैं। तितिक्षते-किसी प्रकार की दीनता दिखाये बिना परिषहों का सहन करते हैं। अधिसहते-खूब सहन करते हैं । इन क्रियापदों से ध्वनित होता है कि अर्जुन मुनि की सहनशीलता समीचीन और आदर्श थी, जो सहनशीलता भय के कारण होती है, वह वास्तविक सहनशीलता नहीं है। जिस क्षमा में क्रोध का अंश विद्यमान है, हृदय में क्रोध छिपा हुआ है, उसे क्षमा नहीं कहा जा सकता और दीनतापूर्वक की गई तितिक्षा वास्तविक तितिक्षा नहीं कही जा सकती। आक्रोश आदि परिषहों के सहन करने में यदि अन्त-करण में अंशतया भी कषायों का उदय हो जाता है तो विकास के बदले यह आत्मा पतन की ओर प्रवृत्त हो जाता है। इसकी विशेष प्रतीति हेतु सूत्रकार ने-'अदीणे, अविमणे अकलुसे, अणाइले, अविसादी, अपरितंतजोगी' शब्दों का प्रयोग किया है। इन पदों की व्याख्या करते हुए आचार्य अभयदेवसूरि लिखते हैं-'अदीणे' त्यादि तत्रादीनः शोकाभावात अविमना न शून्यचित्तः अकलुषो द्वेषवर्जितत्वात् अनाविलः जनाकुलो वा निःक्षोभत्वात् अविषादी किं मे जीवितेनेत्यादि चिन्तारहित: अतएवापरितान्त:-अविश्रान्तो योगः-समाधिर्यस्य सः तथा स्वार्थिकेनन्तत्त्वाच्चापरितान्तयोगी।
इसका अर्थ इस प्रकार है
मन में किसी प्रकार का शोक न होने से अर्जुन मुनि अदीन-दीनता से रहित थे, समाहित चित्त होने से अविमन थे, द्वेष रहित होने से मन में किसी प्रकार की कलुषता-मलिनता और आकुलता नहीं थी। क्षोभशून्य होने से मन में किसी प्रकार का विषाद-दुःख नहीं था। 'मेरा इस प्रकार के तिरस्कृत जीवन से क्या प्रयोजन है,' ऐसी ग्लानि उनके मन में नहीं थी, अतएव वह निरन्तर समाधि में लीन थे। समाधि में सतत लगे रहने के कारण ही अर्जुन मुनि को अपरितान्तयोगी कहा गया है। अपरितान्तयोग शब्द से स्वार्थ में 'इन' प्रत्यय लगा कर अपरितान्तयोगी शब्द बनता है।
बिलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं तमाहारं आहारेइ'- का अर्थ है- जिस प्रकार सांप बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार आहार को ग्रहण किया गया। इन पदों का अर्थ वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है
बिलमिव पन्नगभूतेन आत्मना तमाहारमाहारयति-यथा भुजंगो बिलस्य पार्श्वभागद्वयमसंस्पृशन् मध्यमार्गत एवात्मानं बिले प्रवेशयति तथा मुखस्य पार्श्वद्वयस्पर्शरहितमाहारं कण्ठनालाभिमुखं प्रवेशयाऽऽ हारयतीति भावः।'
अर्थात् जैसे सर्प बिल के दोनों भागों का स्पर्श किए बिना केवल बिल के मध्यभाग से ही बिल