Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 171
________________ १३०] [अन्तकृद्दशा 'हे देवानुप्रिय! आप कहां रहते हैं?' भगवान् गौतम ने अतिमुक्त कुमार को उत्तर दिया देवानुप्रिय! मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक भगवान् महावीर धर्म की आदि करने वाले, यावत् शाश्वत स्थान-मोक्ष के अभिलाषी इसी पोलासपुर नगर के बाहर श्रीवन उद्यान में मर्यादानुसार स्थान ग्रहण करके संयम एवं तप से आत्मा को भावित कर विचरते हैं। हम वहीं रहते हैं।' विवेचन–प्रस्तुत सूत्र के परिशीलन से यह स्पष्ट है कि बालक अतिमुक्त कुमार ने भगवान् गौतम से तीन प्रश्न किए थे। वे प्रश्न हैं - आप कौन हैं? आप किस उद्देश्य से भ्रमण कर रहे हैं? आप कहां पर रहते हैं? प्रस्तुत सूत्र में इन तीनों के उत्तर भी दिये गये हैं। प्रथम प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् गौतम ने अपना परिचय देने के साथ-साथ साधु-जीवन की मर्यादा का वर्णन भी कर दिया है। प्रथम प्रश्न के उत्तर में गौतम स्वामी ने कहा-'हम श्रमण हैं, निर्ग्रन्थ ईर्यासमित एवं ब्रह्मचारी हैं।' वस्तुत: ये चारों शब्द साधुमर्यादा के परिचायक हैं। उनकी व्याख्या इस प्रकार है- तपस्वी अथवा प्राणिमात्र के साथ समतामय समान व्यवहार करने वाले महापुरुष श्रमण कहलाते हैं । जो परिग्रह से रहित हैं अथवा जिनमें राग-द्वेष की ग्रन्थि न हो वे निर्ग्रन्थ हैं। ईर्या-गमन सम्बन्धी समिति-विवेक अर्थात् आगे देखकर तथा सावधानी से चलना ईर्यासमिति है। चतुर्थ महाव्रत ब्रह्मचर्य के परिपालक साधक को ब्रह्मचारी कहते हैं। दूसरे प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान् गौतम ने अतिमुक्त कुमार से कहा-'वत्स ! मैं भिक्षार्थ भ्रमण कर रहा हूं।' तीसरे प्रश्न के उत्तर में गौतम स्वामी ने श्रीवन उद्यान में मेरा निवास है, ऐसा न कहकर श्रीवन उद्यान में परमात्मा महावीर के पास हमारा निवास है, ऐसा बताया। इसमें उनकी अपूर्व गुरुभक्ति झलकती है। विउलेणं..........साइमेणं-इस पद में विपुल शब्द के कई अर्थ पाए जाते हैं-प्रभूत, प्रचुर, विस्तीर्ण, विशाल, उत्तम, श्रेष्ठ आदि। प्रस्तुत में 'उत्तम' अर्थ ग्रहण करना चाहिए। अतिमुक्त का गौतम के साथ वन्दनार्थ गमन १८-तए णं से अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयम एवं वयासी'गच्छामि णं भंते! अहं तुब्भेहिं सद्धिं समणं भगवं महावीरं पायवंदए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि।' तए णं से अइमुत्ते कुमारे भगवया गोयमेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ जाव' पजुवासइ। तए णं भगवं गोयमे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागए, जाव (उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमेइ, पडिक्कमेत्ता एसणमणेसणं आलोएइ, आलोएत्ता भत्तपाणं) पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। १ वर्ग ६, सूत्र ११

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