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षष्ठ वर्ग]
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'इसने मेरे पिता को मारा है। इसने मेरी माता को मारा है। भाई को मारा है, बहन को मारा है, भार्या मारा है, पुत्र को मारा है, कन्या को मारा है, पुत्रवधू को मारा है एवं इसने मेरे अमुक स्वजन सम्बन्धी या परिजन को मारा है। ' ऐसा कहकर कोई गाली देता, कोई हीलना करता, अनादर करता, निंदा करता, कोई जाति आदि का दोष बताकर गर्हा करता, कोई भय बताकर तर्जना करता और कोई थप्पड़, ईंट, पत्थर, लाठी आदि से ताड़ना करता ।
इस प्रकार उन बहुत से स्त्री-पुरुष, बच्चे, बूढ़े और जवानों के आक्रोश- गाली, (हीलना, अनादर, निंदा गर्दा सहते हुए), ताडित- तर्जित होते हुए भी वे अर्जुन मुनि उन पर मन से भी द्वेष नहीं करते हुए उनके द्वारा दिये गए सभी परीषहों को समभावपूर्वक सहन करते हुए उन कष्टों को समभाव से झेल लेते एवं निर्जरा का लाभ समझते । सम्यग्ज्ञानपूर्वक उन सभी संकटों को सहन करते, क्षमा करते, तितिक्षा रखते और उन कष्टों को भी लाभ का हेतु मानते हुए राजगृह नगर के छोटे-बड़े, एवं मध्यम कुलों में भिक्षा हेतु भ्रमण करते हुए अर्जुन मुनि को कभी भोजन मिलता तो पानी नहीं मिलता और पानी मिलता तो भोजन नहीं मिलता।
वैसी स्थिति में जो भी और जैसा भी अल्प स्वल्प मात्रा में प्रासुक भोजन उन्हें मिलता उसे वे सर्वथा अदीन, अविमन, अकलुष, अमलिन, आकुल-व्याकुलता रहित अखेद-भाव से ग्रहण करते, थकान अनुभव नहीं करते ।
इस प्रकार वे भिक्षार्थ भ्रमण करते । भ्रमण करके वे राजगृह नगर से निकलते और गुणशील उद्यान में, जहां श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहां आते और वहां आकर ( भगवान् से न अति दूर न अति निकट से उपस्थित होकर गमनागमन सम्बन्धी प्रतिक्रमण करते, भिक्षा में लगे हुए दोषों की आलोचना करते) और फिर भिक्षा में मिले हुए आहार -पानी को प्रभु महावीर को दिखाते। दिखाकर उनकी आज्ञा पाकर मूर्च्छा रहित, गृद्धि रहित, राग रहित और आसक्ति रहित; जिस प्रकार बिल में सर्प सीधा ही प्रवेश करता है, उस प्रकार राग-द्वेष भाव से रहित होकर उस आहार- पानी का वे सेवन करते ।
तत्पश्चात् किसी दिन श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर के उस गुणशील उद्यान से निकलकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे ।
अर्जुन मुनि ने उस उदार, श्रेष्ठ पवित्र भाव से ग्रहण किये गये, महालाभकारी, विपुल तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए पूरे छह मास श्रमण धर्म का पालन किया। इसके बाद आधे मास की संलेखना से अपनी आत्मा को भावित करके तीस भक्त के अनशन को पूर्ण कर जिस कार्य के लिये व्रत ग्रहण किया था उसको पूर्ण कर वे अर्जुन मुनि यावत् सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गये।
विवेचन - राजगृह नगर में भिक्षा के निमित्त घूमते हुए अर्जुन मुनि को वहां की जनता द्वारा कष्ट प्राप्त हुए, फिर भी वे अपनी साधुजनोचित वृत्ति में स्थिर रहे, मन से भी किसी पर द्वेष नहीं किया, प्रत्युत जो कुछ भी कष्ट प्राप्त हुआ, उसको समभाव में रहते हुए बड़ी शान्ति और धैर्य से सहन किया । इसी समभाव का यह सत्परिणाम हुआ कि वे समस्त कर्म-बंधनों का विच्छेद करके अपने अभीष्ट परम कल्याणस्वरूप निर्वाण को प्राप्त हुए ।
'अक्कोसंति, हीलंति, निंदंति, खिंसंति, गरिहंति, तज्जेंति'- इन क्रियापदों का अर्थ इस प्रकार है-‘अक्कोसंति'-कटु वचनों से भर्त्सना करते हैं । भर्त्सना का अर्थ है - लानत, मलामत, फटकार, बुरा भला