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षष्ठ वर्ग]
[११९ स्पष्ट है। उनका हृदय दयालु था, सहानुभूतिपूर्ण था। अर्जुन माली को अचेत दशा में छोड़कर वे जाना नहीं चाहते थे। उनका विचार था कि अर्जुन माली अब परवशता से उन्मुक्त हो गया है, अतः इसकी देखभाल करना तथा इसका मार्गदर्शन करना मेरा कर्त्तव्य है। इसी कर्त्तव्यपालन की बुद्धि से उन्होंने वहां से प्रस्थान नहीं किया।
अर्जुन माली अन्तर्मुहूर्त तक बेसुध पड़ा रहा, "मुहुत्तंतरेणं-मुहूर्तान्तरेण-स्तोककालेन"-मुहूर्त शब्द का अर्थ है-४८ मिनिट । दो घड़ियों को मुहूर्त कहते हैं और दो घड़ी से न्यून काल को अन्तर्मुहूर्त कहा जाता है। सूत्रकार के कहने का आशय यह है कि अर्जुन माली के शरीर से जब यक्ष निकल कर चला गया, उसके अनन्तर अर्जुन माली धड़ाम से भूमितल पर गिर पड़ा और कुछ समय तक बेहोश पड़ा रहा। उसके अनन्तर उसे होश आया।
सचेत होने पर अर्जुन माली ने सामने उपस्थित सुदर्शन को देख उनका परिचय जानने के साथ कुछ संवाद किया और सेठ सुदर्शन के साथ गुणशीलक उद्यान में भगवान् महावीर के चरणों में पहुँच गया। अर्जुन की प्रव्रज्या
१३-तए णं से अज्जुणए मालागारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुढे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-“सद्दहामिणं भंते! निग्गंथं पावयणं जाव' अब्भुढेमिणं भंते! निग्गंथं पावयणं।'
'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि।'
तए णं से अन्जुणए मालागारे उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता जाव विहरइ।
तए णं से अन्जुणए अणगारे जं चेव दिवसं मुंडे जाव पव्वइए तं चेव दिवसं समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं ओगेण्हइ-कप्पड़ मे जावज्जीवाए छठंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु अयमेयारूवं अभिग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता जावज्जीवाए जाव' विहरइ।
तए णं से अज्जुणए अणगारे छट्ठक्खमणपारणयंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, जाव अडइ।
अर्जन माली श्रमण भगवान महावीर के पास धर्मोपदेश सनकर एवं धारण कर अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुआ और प्रभु महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा कर, वंदन-नमस्कार करके इस प्रकार बोला-'भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करता हं,रुचि करता हं,यावत् आपके चरणों में प्रव्रज्या लेना चाहता हूं।'
भगवान् महावीर ने कहा-'देवानुप्रिय! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो।'
तब अर्जुन माली ने ईशानकोण में जाकर स्वयं ही पंचमौष्टिक लुंचन किया, लुंचन करके वे अनगार हो गये। संयम व तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे।
१.-२. वर्ग ३, सूत्र १८. ४. वर्ग ३, सूत्र २.
३. वर्ग ५, सूत्र २. ५. वर्ग ३, सूत्र ६.