________________
१२४]
[ अन्तकृद्दशा
'प्रगृहीत' का अर्थ है - ग्रहण किया हुआ । किसी भी व्रत ग्रहण करने वाले व्यक्ति की मानसिक स्थिति एक जैसी नहीं रहती। किसी समय मन में श्रद्धा का अतिरेक होता है और किसी समय श्रद्धा कमजोर पड़ जाती है और किसी समय लोकलज्जा के कारण बिना श्रद्धा के ही व्रत का परिपालन किया जाता है । इन सब बातों को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने मुनि द्वारा कृत तप को प्रगृहीत विशेषण से विशेषित किया है, जो उत्कृष्ट भावना से ग्रहण किया हुआ, इस अर्थ का बोधक है। अर्जुन मुनि की आस्था संकट काल में शिथिल नहीं हुई, वे सुदृढ़ साधक बन कर साधना-जगत् में आए थे और अन्त तक सुदृढ़ साधक ही रहे। उन्होंने अपने मन को कभी डांवाडोल नहीं होने दिया ।
यदि पयत्तेणं का संस्कृत रूप प्रयत्नेन किया जाय तो उदार और विपुल ये दोनों प्रयत्न के विशेषण बन जाते हैं, तब इन शब्दों का अर्थ होगा- प्रधान विशाल प्रयत्न से ग्रहण किया गया। तप करना साधारण बात नहीं है, इसके लिये बड़े पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। इसी महान् पुरुषार्थ को प्रधान विशाल प्रयत्न कहा गया है
1
'महानुभाग' शब्द प्रभावशाली अर्थ का बोधक है। जिस तप के प्रताप से अर्जुनमुनि ने जन्मजन्मान्तर के कर्मों को नष्ट कर दिया, परम साध्य निर्वाण प्राप्त कर लिया, उसकी प्रभावगत महत्ता में क्या आशंका हो सकती है ।
आत्मा के साथ लगे हुए कर्म-मल को जलाने के लिये तप रूप अग्नि की नितान्त आवश्यकता होती है। तप रूप अग्नि के द्वारा कर्म-मल के भस्मसात् होने पर आत्मा शुद्ध स्फटिक की भांति निर्मल हो जाती है। इसलिए अर्जुनमुनि ने संयम ग्रहण करने के अनन्तर अपने कर्ममल युक्त आत्मा को निर्मल बनाने के लिए तपरूप अग्नि को प्रज्वलित किया । परिणाम स्वरूप वे कैवल्य-प्राप्ति के अनन्तर निर्वाण-पद को प्राप्त हुए ।
श्रेणिकचरित्र में लिखा है कि अर्जुनमाली के शरीर में मुद्गरपाणि यक्ष का पांच मास १३ दिनों तक प्रवेश रहा। उससे उसने ११४१ व्यक्तियों का प्राणान्त किया । इसमें ९७८ पुरुष और १६३ स्त्रियां थीं । इससे स्पष्ट प्रमाणित है कि वह प्रतिदिन सात व्यक्तियों की हत्या करता रहा। यहां एक आशंका होती है कि जिस व्यक्ति ने इतना बड़ा प्राणि-वध किया और पाप कर्म से आत्मा का महान् पतन किया, उस व्यक्ति को केवल छह मास की साधना से कैसे मुक्ति प्राप्त हो गई?
उत्तर यह कि तप में अचिन्त्य, अतर्क्य एवं अद्भुत शक्ति है । आगम कहता है- 'भवकोडिसंचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ । ' अर्थात् करोड़ों भवों में संचित किए बांधे कर्म भी तपश्चर्या द्वारा नष्ट किए जा सकते हैं। यह भी कहा गया है
—
अण्णाणी जं कम्मं खवेइ भवसयसहस्सकोडीहिं ।
तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमेत्तेणं ॥
- प्रवचनसार
अर्थात् अज्ञानी जीव जिन कर्मों को लाखों-करोड़ों भवों में खपा पाता है, उन्हें त्रिगुप्त-मन-वचन, काय का गोपन करने वाला ज्ञानी आत्मा एक श्वास जितने स्वल्प काल में क्षय कर डालता है । जब तीव्रतर तप की अग्नि प्रज्वलित होती है तो कर्मों के दल के दल सूखे घास-फूस की तरह भस्मसात् हो जाते हैं ।
इसके अतिरिक्त प्रस्तुत प्रसंग में यह भी कहा जा सकता है कि अर्जुन मालाकार द्वारा जो वध किया गया, वह वस्तुतः यक्ष द्वारा किया गया वध था। अर्जुन उस समय यक्षाविष्ट होने से पराधीन था। वह तो यंत्र की भांति प्रवृत्ति कर रहा था। अतएव मनुष्यवध योग्य कषाय की तीव्रता उसमें संभव नहीं थी ।