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[अन्तकृद्दशा इसके पश्चात् अर्जुन मुनि ने जिस दिन मुंडित हो प्रव्रज्या ग्रहण की, उसी दिन श्रमण भगवान् महावीर को वंदना-नमस्कार करके इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया-'आज से मैं निरन्तर बेले-बेले की तपस्या से आजीवन आत्मा को भावित करते हुए विचरूंगा।' ऐसा अभिग्रह जीवन भर के लिए स्वीकार कर अर्जुन मुनि विचरने लगे।
इसके पश्चात अर्जुन मुनि बेले की तपस्या के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय और दूसरे प्रहर में ध्यान करते । फिर तीसरे प्रहर में राजगृह नगर में भिक्षार्थ भ्रमण करते। परीषह-सहन और सिद्धि
१४-तए णं तं अज्जुणयं अणगारं रायगिहे नयरे उच्च जाव (नीय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए) अडमाणं बहवे इत्थीओ य पुरिसा य डहरा य महल्ला य जुवाणा य एवं वयासी
_ 'इमेण मे पिता मारिए। इमेण मे माता मारिया। इमेण मे भाया भगिणी भजा पुत्ते धूया सुण्हा मारिया। इमेण मे अण्णयरे सयण-सम्बन्धि-परियणे मारिए त्ति कटु अप्पेगइया अक्कोसंति, अप्पेगइया हीलंति निंदति खिंसंति गरिहंति तजति तालेति।'
तएणं से अज्जुणए अणगारे तेहिं बहूहिं इत्थीहि य पुरिसेहि य डहरेहि य महल्लेहि य जुवाणएहि य आओसिजमाणे (आकोजमाणे) जाव(हीलेमाणे, निंदेमाणे, खिंसेमाणे, गरिहेमाणे, तज्जेजमाणे) तालेजमाणे तेसिं मणसा वि अप्पउस्समाणे सम्मं सहइ सम्मं खमइ सम्मं तितिक्खइ सम्म अहियासेइ, सम्म सहमाणे सम्मं खममाणे सम्म तितिक्खमाणे सम्मं अहियासेमाणे रायगिहे नयरे उच्च-णीय मज्झिम-कुलाई अडमाणे जइ भत्तं लभइ तो पाणं न लभइ, अह पाणं लभइ तो भत्तं न लभइ।
तए णं से अज्जुणए अणगारे अदीणे अविमणे अकलुसे अणाइले अविसादी अपरितंतजोगी अडइ, अडित्ता रायगिहाओ नयराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे जाव (तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूर-सामंते गमणागमणाए पडिक्कमेइ, पडिक्कमेत्ता एसणमणेसणं आलोएइ, आलोएत्ता भत्तपाणं) पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववण्णे बिलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं तमाहारं आहारेइ। तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया रायगिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ।
तए णं से अजुणए अणगारे तेणं ओरालेण विपुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं महाणुभागेणं तवोकम्मेण अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णे छम्मासे सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसेइ, झूसेत्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेइ,छेदेत्ता जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावे जाव' सिद्धे।
उस समय अर्जुन मुनि को राजगृह नगर में उच्च-नीच मध्यम कुलों में भिक्षार्थ घूमते हुए देखकर नगर के अनेक नागरिक-स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध इस प्रकार कहते
१. वर्ग ५, सूत्र ६.