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[ अन्तकृद्दशा
उस राजगृह नगर में सुदर्शन नाम के एक धनाढ्य सेठ रहते थे । वे श्रमणोपासक - श्रावक थे और जीव- अजीव के अतिरिक्त [ पुण्य और पाप के स्वरूप को भी जानते थे । इसी प्रकार आस्रव संवर निर्जरा क्रिया (कर्मबंध की कारणभूत पच्चीस प्रकार की क्रियाओं) अधिकरण (कर्मबंध का साधन - शस्त्र) तथा बन्ध और मोक्ष के स्वरूप के ज्ञाता थे। किसी भी कार्य में वे दूसरों की सहायता की अपेक्षा नहीं रखते थे । निर्ग्रन्थ-प्रवचन में इतने दृढ़ थे कि देव, असुर, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व, महोरगादि देवता भी उन्हें निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित नहीं कर सकते थे । उन्हें निर्ग्रन्थप्रवचन में शंका, कांक्षा और विचिकित्सा (फल में सन्देह) नहीं थी । उन्होंने शास्त्र के परमार्थ को समझ लिया था । वे शास्त्र का अर्थ - रहस्य निश्चित रूप से धारण किए हुए थे । उन्होंने शास्त्र के सन्देह जनक स्थलों को पूछ लिया था, उनका ज्ञान प्राप्त कर लिया था, उनका विशेष रूप से निर्णय कर लिया था। उनकी हड्डियाँ और मज्जा सर्वज्ञ देव के अनुराग से अनुरक्त हो रही थीं। निर्ग्रन्थप्रवचन पर उनका अटूट प्रेम था। उनकी ऐसी श्रद्धा थी कि - आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन ही सत्य है, परमार्थ है, परम सत्य है, अन्य सब अनर्थ (असत्यरूप) हैं। उनकी उदारता के कारण उनके भवन के दरवाजे की अर्गला ऊंची रहती थी, उनका द्वार सबके लिये खुला रहता था । वे जिसके घर में या अन्तःपुर में जाते उसमें प्रीति उत्पन्न किया करते थे । वे शीलव्रत (पांचों अणुव्रत ), गुणव्रत, विरमण ( रागादि से निवृत्ति) प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास आदि का पालन करते तथा चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन परिपूर्ण पौषधव्रत किया करते थे । श्रमणों-निर्ग्रन्थों को निर्दोष अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज आदि का दान करते हुए महान् लाभ प्राप्त करते थे, तथा स्वीकार किये तप-कर्म के द्वारा अपनी आत्मा को भावित - वासित करते हुए ] विहरण कर रहे थे । भगवान् महावीर का पदार्पण
८ - तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे जाव' विहरइ । तए णं रायगिहे णयरे सिंघाडग जाव' महापहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खड़ जाव [ एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ - " एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे, आइगरे तित्थयरे सयंसंबुद्धे, पुरिसुत्तमे जाव संपाविउकामे, पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्माणे, इहमागए, इह संपत्ते, इह समोसढे; इहेव रायगिहे णयरे बाहिं गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।" तं महम्फलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए; किमंग पुण अभिगमण-वंदणसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ? एगस्स वि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए; ] किमंग पुण विउलस्स अत्थस्स गहणयाए ?
उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर राजगृह पधारे और बाहर उद्यान में ठहरे। उनके पधारने के समाचार सुनकर राजगृह नगर के श्रृंगाटक, राजमार्ग आदि स्थानों में बहुत से नागरिक परस्पर इस प्रकार वार्तालाप करने लगे - [ विशेष रूप से कहने लगे, प्रकट रूप से एक ही आशय को भिन्न-भिन्न शब्दों के द्वारा प्रकट करने लगे, कार्य-कारण की व्याख्या सहित- तर्क युक्त कथन करने लगे - " हे देवानुप्रिय ! बात ऐसी है कि श्रमण भगवान् महावीर जो स्वयं संबुद्ध, धर्मतीर्थ के आदिकर्ता और तीर्थंकर हे, पुरुषोत्तम हैं.... यावत् सिद्धिगति रूप स्थान की प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति करने वाले हैं, वे क्रमशः विचरण
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वर्ग ५ सूत्र १
२. वर्ग ६. सूत्र ६.