Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ अन्तकृद्दशा
वसुदेव के पुत्र थे, अतः वासुदेव कृष्ण के भाई थे, इनकी माता धारिणी थी, राजकुमार सत्यनेमि तथा दृढ़नेमि ये दोनों राजकुमार वासुदेव कृष्ण के ताऊ के लड़के थे । प्रद्युम्नकुमार तथा शाम्बकुमार ये दोनों वासुदेव कृष्ण के पुत्र थे । राजकुमार अनिरुद्ध वासुदेव कृष्ण का पोता था। सभी राजकुमार भगवान् अरिष्टनेमि के चरणों में साधु बने थे ।
महारानी पद्मावती, गौरी, गान्धारी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जांबवती, सत्यभामा, रुक्मिणी ये आठों महाराज कृष्ण की रानियां थीं। मूलश्री तथा मूलदत्ता ये दोनों कृष्ण महाराज के पुत्र शाम्बकुमार की रानियाँ थीं। ये सब भगवान् अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षित होकर जैन साध्वियाँ बन गई थीं। 1
प्रस्तुत सूत्र के अनुसार वासुदेव कृष्ण अपने राजसेवकों द्वारा द्वारका नगरी के सभी प्रदेशों में एक उद्घोषणा कराते हैं । घोषणा में कहा जाता है कि द्वारका नगरी एक दिन द्वैपायन ऋषि द्वारा जला दी जायेगी, अतः जो भी व्यक्ति भगवान् अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षित होकर अपना कल्याण करना चाहे, उसे महाराज कृष्ण की आज्ञा है । किसी को पीछे वालों की चिन्ता हो तो उसे वह छोड़ देनी चाहिये, पीछे की सब व्यवस्था महाराज कृष्ण स्वयं करेंगे। इसके अतिरिक्त घोषणा में यह भी कहा गया था कि जो भी व्यक्ति साधु बन कर अपना कल्याण करना चाहे, उसके दीक्षा समारोह की सब व्यवस्था महाराज श्रीकृष्ण की ओर से होगी । यह घोषणा एक बार नहीं, तीन-तीन बार की गई थी।
इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि कृष्ण वासुदेव को जहां नरकगामी बतलाया गया है वहाँ उन्हें तीर्थंकर बन जाने के अनन्तर मोक्षगामी बतला कर परम सम्मान भी प्रदान किया गया है।
अब
मदोन्मत्त यादवकुमारों से प्रताडित द्वैपायन ऋषि ने निदान कर लिया था कि यदि मेरी तपस्या का कोई फल हो तो मैं द्वारका नगरी को जला कर भस्म कर दूं । निदानानुसार द्वैपायन ऋषि अग्निकुमार जाति देव बने। इधर वह पूर्व वैर का स्मरण करके द्वारकादाह का अवसर देख रहा था, परन्तु प्रतिदिन की आयंबिल तपस्या के प्रभाव के सामने उसका कोई वश नहीं चलता था । वह द्वारका नगरी को जलाने में असफल रहा, तथापि उसने प्रयत्न नहीं छोड़ा, लगातार बारह वर्षों तक उसका यह प्रयत्न चलता रहा । बारह वर्षों के बाद द्वारका के कुछ लोग सोचने लगे-तपस्या करते-करते वर्षों व्यतीत हो गए हैं, अग्निकुमार हमारा क्या बिगाड़ सकता है? इसके अतिरिक्त कुछ लोग यह भी सोच रहे थे कि द्वारका के सभी लोग तो आयंबिल कर ही रहे हैं, यदि हम लोग न भी करें तो इससे क्या अन्तर पड़ता है ? समय की बात समझिए कि द्वारका में एक दिन ऐसा आ गया जब किसी ने भी तप नहीं किया । व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण संकट मोचक आचाम्ल तप से सभी विमुख हो गए। अग्निकुमार द्वैपायन ऋषि के लिये इससे बढ़कर और कौनसा अवसर हो सकता था । उसने द्वारका को आग लगा दी। चारों ओर भयंकर शब्द होने लगे, जोर की आंधी चलने लगी, भूचाल से मकान धराशायी होने लगे, अग्नि ने सारी द्वारका को अपनी लपेट में ले लिया। वासुदेव कृष्ण ने आग शान्त करने के अनेकों यत्न किए, पर कर्मों का ऐसा प्रकोप चल रहा था कि आग पर डाला जानेवाला पानी तेल का काम कर रहा था । पानी डालने से आग शान्त होती है, पर उसमें ज्यों-ज्यों पानी डाला जाता था त्यों-त्यों अग्नि और अधिक भड़कती थी । अग्नि की भीषण ज्वालाएँ मानो गगन को भी भस्म करने का यत्न कर रही थीं। कृष्ण वासुदेव, बलराम, सब निराश थे, इनके देखते देखते द्वारका जल गई, वे उसे बचा नहीं सके ।
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द्वारका के दग्ध हो जाने पर कृष्ण वासुदेव और बलराम वहां से जाने की तैयारी करने लगे। इसी बात को सूत्रकार ने “सुरग्गिदीवायणकोवनिदड्ढाए" इस पद से अभिव्यक्त किया है।