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[अन्तकृद्दशा जैसे महान् आध्यात्मिक पद को प्राप्त करूंगा, यह सुनकर श्रीकृष्ण प्रमुदित होकर अपनी भुजाएं फड़काते हैं। उनके अंगों में स्फुरणा आरम्भ हो जाती है। (२) श्रीकृष्ण उच्च स्वर से प्रसन्नता प्रकट करने वाले शब्दों का उच्चारण करते हैं । (३) पहलवानों की तरह भूमि पर तीन बार पैंतरे बदलते हैं या भगवान् के समवसरण में तीन बार उछलते हैं। (४) शेर की तरह गर्जना करते हैं।
६-तए णं सा पउमावई देवी अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव' हियया अरहं अरिट्ठणेमिं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी
"सद्दहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, से जहेयं तुब्भे वयह। जं नवरं-देवाणुप्पिया! कण्हं वासुदेवं आपुच्छामि। तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा जाव पव्वयामि।"
'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि।'
तए णं सा पउमावई देवी धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ, दुरुहित्ता जेणेव बारवई नयरी जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव[ परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए-अंजलिं] कटु कण्हं वासुदेवं एवं वयासी
इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणा अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतिए मुंडा जावरे पव्वइत्तए।
अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि। तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! पउमावईए महत्थं निक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेह, उवट्ठबित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तए णं ते जाव पच्चप्पिणंति।
इसके बाद वह पद्मावती महारानी भगवान् अरिष्टनेमि से धर्मोपदेश सुनकर एवं उसे हृदय में धारण करके प्रसन्न और सन्तुष्ट हुई, उसका हृदय प्रफुल्लित हो उठा यावत् वह अरिहंत नेमिनाथ को वंदनानमस्कार करके इस प्रकार बोली
___ भंते ! निर्ग्रन्थप्रवचन पर मैं श्रद्धा करती हूं। जैसा आप कहते हैं वह वैसा ही है। आपका धर्मोपदेश यथार्थ है । हे भगवन् ! मैं कृष्ण वासुदेव की आज्ञा लेकर फिर देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूं।'
प्रभु ने कहा-'जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो। हे देवानुप्रिये! धर्म-कार्य में विलम्ब मत करो।'
नेमिनाथ प्रभु के ऐसा कहने के बाद पद्मावती देवी धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर आरूढ होकर द्वारका नगरी में अपने प्रासाद में आकर धार्मिक रथ से नीचे उतरी और जहां पर कृष्ण वासुदेव थे वहां आकर अपने दोनों हाथ जोड़कर सिर झुकाकर, मस्तक पर अंजलि पर कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोली
'देवानुप्रिय! आपकी आज्ञा हो तो मैं अरिहंत नेमिनाथ के पास मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ।'
१.
तृतीय वर्ग, सूत्र ७.
२-३. पंचम वर्ग, सूत्र २.