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[ अन्तकृद्दशा
के क्या भाव कहे हैं? इसके उत्तर में सुधर्मास्वामी बोले – 'हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने अष्टम अंग अंतगडदशा के छठे वर्ग के सोलह अध्ययन कहे हैं, जो इस प्रकार हैं
गाथार्थ – (१) मकाई, (२) किंकम, (३) मुद्गरपाणि, (४) काश्यप, (५) क्षेमक, (६) धृतिधर, (७) कैलाश (८) हरिचन्दन, (९) वारत्त, (१०) सुदर्शन, (११) पुण्यभद्र, (१२) सुमनभद्र, (१३) सुप्रतिष्ठित, (१४) मेघकुमार, (१५) अतिमुक्तकुमार और (१६) अलक्क (अलक्ष्य) कुमार ।
जम्बूस्वामी ने सुधर्मास्वामी से कहा - भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने छट्ठे वर्ग के १६ अध्ययन कहे हैं तो प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है?
सुधर्मास्वामी ने उत्तर दिया – हे जम्बू ! उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहां गुणशील नामक चैत्य - उद्यान था । उस नगर में श्रेणिक राजा राज्य करते थे। वहां मकाई नामक गाथापति रहता था, जो अत्यन्त समृद्ध यावत् अपरिभूत था ।
उस काल उस समय में धर्म की आदि करने वाले श्रमण भगवान् महावीर गुणशील उद्यान में [साधुवृत्ति के अनुकूल अवग्रह उपलब्ध कर, संयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए ] पधारे। प्रभु महावीर का आगमन सुनकर परिषद् दर्शनार्थ एवं धर्मोपदेश- श्रवणार्थ आई। मकाई गाथापति भी भगवतीसूत्र में वर्णित गंगदत्त के वर्णनानुसार अपने घर से निकला । धर्मोपदेश सुनकर वह विरक्त हो गया। घर आकर ज्येष्ठ पुत्र को घर का भार सौंपा और स्वयं हजार पुरुषों से उठाई जाने वाली शिविका (पालखी) में बैठकर श्रमणदीक्षा अंगीकार करने हेतु भगवान् की सेवा में आया, यावत् वह अनगार हो गया। ईर्या आदि समितियों से युक्त एवं गुप्तियों से गुप्त ब्रह्मचारी बन गया।
इसके बाद मकाई मुनि ने श्रमण भगवान् महावीर के गुणसंपन्न तथा वेषसम्पन्न स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और स्कंदकजी के समान गुणरत्नसंवत्सर तपं का आराधन किया। सोलह वर्ष तक दीक्षापर्याय में रहे । अन्त में विपुलगिरि पर्वत पर स्कन्दकजी के समान ही संथारादि करके सिद्ध गये।
किंकम भी मकाई के समान ही दीक्षा लेकर विपुलाचल पर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
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