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[अन्तकृद्दशा "भगवन् ! यह पद्मावती देवी मेरी पटरानी है। यह मेरे लिये इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है और मन के अनुकूल चलने वाली है, अभिराम है। भगवन् ! यह मेरे जीवन में श्वासोच्छ्वास के समान है, मेरे हृदय को आनन्द देने वाली है। इस प्रकार का स्त्री-रत्न उदुम्बर (गूलर) के पुष्प के समान सुनने के लिये भी दुर्लभ है; तब देखने की तो बात ही क्या है? हे देवानुप्रिय! मैं ऐसी अपनी प्रिय पत्नी की भिक्षा शिष्या रूप में आपको देता हूं। आप उसे स्वीकार करें।"
कृष्ण वासुदेव की प्रार्थना सुनकर प्रभु बोले-'देवानुप्रिय! तुम्हें जिस प्रकार सुख हो वैसा करो।'
८-तए णं सा पउमावई उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता, सयमेव आभरणालंकारं ओमुयइ, ओमुयित्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता जेणेव अरहा अरिट्ठणेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरि?णेमिं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते जाव' तं इच्छामि णं देवाणुप्पिएहिं धम्ममाइक्खियं।
तए णं अरहा अरिडणेमी पउमावइं देविं सयमेव पव्वावेइ पवावेत्ता सयमेव जक्खिणीए अज्जाए सिस्सिणित्ताए दलयइ। तए णं सा जक्खणी अज्जा पउमावई देविं सयमेव जाव संजमियव्वं । तए णं सा पउमावई अज्जा जाया। इरियासमिया जाव [भासासमिया एसणासमिया आयाणभंड-मत्त-णिक्खेवणासमिया उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठावणिया-समिया मणसमिया वइसमिया कायसमिया मणगुत्ता वइगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुत्तिंदिया ] गुत्तबंभयारिणी।
तए णं सा पउमावई अज्जा जक्खिणीए अजाए अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई अहिज्जइ, बहूहिं चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विविहेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ।
तए णं सा पउमावई अज्जा बहुपडिपुण्णाई वीसं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसेइ, झूसेत्ता सट्ठि भत्ताइं अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावे जाव [ मुंडभावे, केसलोए, बंभचेरवासे, अण्हाणगं, अच्छत्तयं अणुवाहणयं भूमिसेज्जाओ, फलगसेज्जाओ, परघरप्पवेसे, लद्धावलद्धाइं, माणावमाणाइं, परेसिं हीलणाओ, निंदणाओ, खिंसणाओ, तालणाओ, गरहणाओ, उच्चावया विरूवरूवा बावीसं परीसहोवसग्गा-गामकंटगा अहियासिज्जति तमढं आराहेइ, चरिमुस्सासेहिं सिद्धा।
___ तब उस पद्मावती देवी ने ईशान-कोण में जाकर स्वयं अपने हाथों से अपने शरीर पर धारण किए हुए सभी आभूषण एवं अलंकार उतारे और स्वयं ही अपने केशों का पंचमुष्टिक लोच किया। फिर भगवान् नेमिनाथ के पास आकर वन्दना की। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-"भगवन् ! यह संसार जन्म, जरा, मरण आदि दुःख रूपी आग में जल रहा है, यावत् मुझे दीक्षा दें।"
इसके बाद भगवान् नेमिनाथ ने पद्मावती देवी को स्वयमेव प्रव्रज्या दी और स्वयं ही यक्षिणी आर्या को शिष्या के रूप में प्रदान की। तब यक्षिणी आर्या ने पद्मावती को धर्मशिक्षा दी, यावत् इस प्रकार संयमपूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए। तब वह पद्मावती आर्या ईर्यासमिति, [भाषासमिति, एषणासमिति,
१-२. वर्ग ५, सूत्र ८.