Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 142
________________ पंचम वर्ग] [१०१ कृष्ण ने कहा – 'देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो । ' तब कृष्ण वासुदेव ने अपने आज्ञाकारी पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार आदेश दियादेवानुप्रियो ! शीघ्र ही महारानी पद्मावती के दीक्षा महोत्सव की विशाल तैयारी करो और तैयारी हो जाने की मुझे सूचना दो। तब आज्ञाकारी पुरुषों ने वैसा ही किया और दीक्षा महोत्सव की तैयारी की सूचना दी। ७ - तए णं से कहे वासुदेवे पउमावई देविं पट्टयं दुरुहेइ, अट्ठसएणं सोवण्णकलसाणं जाव [ एवं रुप्पकलसाणं, सुवण्णरुप्पकलसाणं, मणिकलसाणं, सुवन्नमणिकलसाणं, रुप्पमणिकलसाणं, सुवन्नरुप्पमणिकलसाणं, भोमेज्जकलसाणं सव्वोदएहिं सव्वमट्टियाहिं सव्वपुप्फेहिं सव्वगंधेहिं सव्वमल्लेहिं सव्वोसहिहि य, सिद्धत्थएहि य, सव्विड्डीए सव्वजुईए सव्वबलेणं जाव [ सव्वसमुदएणं सव्वादरेणं सव्वविभूईए सव्वविभूसाए सव्वसंभ्रमेणं सव्वपुप्फगंधमल्लालंकारेणं सव्वतुडिय-सह-सण्णिणाएणं महया इड्ढीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदणं महया वरतुडिय - जमगसमगप्पवाइएणं संख- पणव- पडह - भेरि-झल्लरिखरमुहि- हुडुक्क - मुरय-मुइंग-दुंदुभिघोसरवेणं महया महया ] महाणिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचाइ, अभिसिंचित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेड़, करेत्ता पुरिससहस्सवाहिणिं सिवियं दुरुहावेइ, दुरुहावेत्ता बारवईए नयरीए मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव रेवयए पव्वए, जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयं ठवेइ "पउमावई देविं" सीयाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव अरहा अरिट्ठणेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिट्ठणेमिं तिक्खुत्तो आयाहिण -पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - एस णं भंते! मम अग्गमहिसी पउमावई नामं देवी इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणाभिरामा जाव [जीवियऊसासा हिययाणंदजणिया, उंबरपुष्पं पिव दुल्लहा सवणयाए] किमंग पुण पासणयाए ? तण्णं अहं देवाणुप्पिया! सिस्सिणिभिक्खं दलयामि । पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सिणिभिक्खं । 'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह ।' इसके बाद कृष्ण वासुदेव ने पद्मावती देवी को पट्ट पर बिठाया और एक सौ आठ सुवर्ण कलशों से, [ एक सौ आठ रजत-कलशों से, एक सौ आठ सुवर्ण रजतमय कलशों से, एक सौ आठ मणिमय कलशों, एक सौ आठ स्वर्ण-मणि के कलशों, एक सौ आठ रजत-मणि के कलशों, एक सौ आठ स्वर्णरजत-मणि के कलशों और एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से - इस प्रकार आठ सौ चौसठ कलशों में सब प्रकार का जल भर कर तथा सब प्रकार की मृत्तिका से, सब प्रकार के पुष्पों से, सब प्रकार के गंधों से, सब प्रकार की मालाओं से, सब प्रकार की औषधियों से तथा सरसों से उन्हें परिपूर्ण करके, सर्वसमृद्धि, द्युति तथा सर्व सैन्य के साथ, दुंदुभि के निर्घोष की प्रतिध्वनि के शब्दों के साथ उच्चकोटि के ] निष्क्रमणाभिषेक से अभिषिक्त किया। अभिषेक करके फिर सभी प्रकार के अलंकारों से विभूषित करके हजार पुरुषों द्वारा उठायी जाने वाली शिविका ( पालखी) में बिठाकर द्वारका नगरी के मध्य से होते हुए निकले और जहां रैवतक पर्वत और सहस्राम्रवन उद्यान था उस ओर चले। वहां पहुँच कर पद्मावती देवी शिविका से उतरी। तदनन्तर कृष्ण वासुदेव जहां अरिष्टनेमि भगवान् थे वहां आये, आकर भगवान् को दक्षिण तरफ से तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना - नमस्कार किया, वन्दना - नमस्कार कर इस प्रकार बोले

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