Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पंचम वर्ग]
[९९ से इसका नाम बालुकाप्रभा है । क्षेत्रस्वभाव से इसमें उष्ण वेदना होती है। यहां की भूमि जलते हुए अंगारों से अधिक तप्त है।
कृष्ण वासुदेव बालुकाप्रभा नामक तीसरी पृथ्वी में पैदा हुए। उज्ज्वलित शब्द के दो अर्थ होते हैंपहला तीसरी भूमि का सातवाँ नरकेन्द्रक-नरकस्थान विशेष और दूसरा भीषण-भयंकर। उज्ज्वलित शब्द नरक का विशेषण है।
"उस्सप्पिणीए"- उत्सर्पिण्याम्-अर्थात् उत्सर्पिणीकाल में। जैन शास्त्रकारों ने काल को दो विभागों में विभक्त किया है,एक का नाम अवसर्पिणी और दूसरे का उत्सर्पिणी है। जिस काल में जीवों के संहनन (अस्थियों की रचनाविशेष), संस्थान, क्रमशः हीन होते चले जाएं, आयु और अवगाहना घटती चली जाये, वह काल अवसर्पिणी काल कहलाता है। इस काल में पुद्गलों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श हीन होते चले जाते हैं। शुभ भाव घटते हैं, अशुभ भाव बढ़ते हैं। यह काल दस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम का है।
इसके विपरीत जिस काल में जीवों के संहनन आदि क्रमश: अधिकाधिक शुभ होते चले जाते हैं, आयु और अवगाहना बढ़ती जाती है, वह उत्सर्पिणी काल है। पुद्गलों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श भी इस काल में क्रमशः शुभ होते जाते हैं। यह काल भी दस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम का है।
. भगवान् अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव से कहा- हे कृष्ण ! तुम आने वाले उत्सर्पिणीकाल में पुण्ड्र देश के शतद्वार नगर में अमम नाम के बारहवें तीर्थंकर होओगे।
प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में भारतवर्ष में साढे २५ देशों को आर्य माना गया है। आर्य देश में ही अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव की उत्पत्ति बताई गई है। यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि जिन साढे २५ देशों के नाम शास्त्रों में बतलाए गए हैं उनमें पुण्ड्र देश का नाम देखने को नहीं मिलता, ऐसी दशा में उसको आर्यदेश कैसे कह सकते हैं? भगवान् अरिष्टनेमि के कथनानुसार वहाँ कृष्ण वासुदेव बारहवें तीर्थंकर बनेंगे, तो पुण्ड्र देश को अनार्य भी नहीं कह सकते। यदि तीर्थंकर की उत्पत्ति होने से उसे आर्य देश मानें तो फिर साढ़े २५ की गणना असंगत हो जाती है। यह पूर्वापर का विरोध संगति चाहता है। उत्तर में निवेदन है कि जहां पर तीर्थंकर आदि महापुरुषों का जन्म होता है, वे देश आर्य हैं, यह सिद्धान्त युक्तियुक्त और शास्त्रसम्मत है। रही बात साढे २५ देशों की गणना की, वह भगवान् महावीर स्वामी के समय की अपेक्षा से की गई प्रतीत होती है। अत: पुण्ड्र देश को आर्य देश मानने में किसी प्रकार का विरोध दिखाई नहीं देता।
"अरहा" शब्द भगवान् अरिष्टनेमि की सामान्य अर्थ से सर्वज्ञता का सूचक है तथा विशेष अर्थ से तीर्थंकरत्व का द्योतक है। "रह" अर्थात् रहस्य, गुप्तता आदि रह जिनमें नहीं हैं वे 'अरहा' अर्थात् जगत् का कोई भी रहस्य जिनसे गुप्त नहीं है वे 'अरहा' हैं। अर्ह का अर्थ है-योग्य होना और पूजित होना। घातिकर्मों का अन्त करने से उन्हें अरिहन्त भी कहते हैं।
'अप्फोडेइ, अप्फोडइत्ता वग्गइ, वग्गइत्ता तिवलिं छिंदइ, छिंदित्ता सीहनायं करेइ'
अर्थात् इस पाठ से सूत्रकार ने चार बातें ध्वनित की हैं। महाराज कृष्ण भविष्य में बारहवें तीर्थंकर बनने की शुभ वार्ता सुनकर आनन्दविभोर हो उठते हैं। अपनी अनेकविध चेष्टाओं द्वारा अपने आन्तरिक हर्प को अभिव्यक्त करते हैं। उनकी ये चेष्टाएँ चार भागों में विभाजित की गई हैं ---- (१) भविष्य में तीर्थंकर