Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पंचम वर्ग ]
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'अम्मा- पिइ-नियग-विप्पहूणे” – अम्बापितृ - निजकविप्रहीणः - मातृपितृभ्यां स्वजनेभ्यश्च विहीनः - अर्थात् माता-पिता और अपने सम्बन्धियों से रहित । कथाकारों का कहना है कि जब द्वारका
जल रही थी तब कृष्ण वासुदेव और उनके बड़े भाई बलराम दोनों आग बुझाने की चेष्टा कर रहे थे, पर जब ये सफल नहीं हुए तब अपने महलों में पहुंचे और अपने माता-पिता को बचाने का प्रयत्न करने लगे। बड़ी कठिनाई से माता-पिता को महल में से निकालने में सफल हुए। इनका विचार था कि मातापिता को रथ पर बैठाकर किसी सुरक्षित जगह पर पहुंचा दिया जाये । अपने विचार की पूर्ति के लिये वासुदेव श्रीकृष्ण जब अश्वशाला में पहुँचे तो देखते हैं, अश्वशाला जलकर नष्ट हो चुकी है । वे वहां से चले, रथशाला में आए । रथशाला को आग लगी हुई थी, किन्तु एक रथ उन्हें सुरक्षित दिखाई दिया। वे तत्काल उसी को बाहर ले आये, उस पर माता-पिता को बैठाया। घोड़ों के स्थान पर दोनों भाई जुत गए पर जैसे ही सिंहद्वार को पार करने लगे और रथ का जूआ और दोनों भाई द्वार से बाहर निकले ही थे कि तत्काल द्वार का ऊपरी भाग टूट पड़ा और माता-पिता उसी के नीचे दब गए। उनका देहान्त हो गया । वासुदेव कृष्ण तथा बलराम से यह मार्मिक भयंकर दृश्य देखा नहीं गया। वे माता-पिता के वियोग से अधीर हो उठे। जैसे-तैसे उन्होंने अपने मन को संभाला, माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धियों के वियोग से उत्पन्न महान् संताप को धैर्यपूर्वक सहन किया। माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धियों की इसी विहीनता को सूत्रकार ने “ अम्मापिइ - नियग-विप्पहूणे" इस पद से संसूचित किया है।
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'रामेण बलदेवेण सद्धिं" - का अर्थ है- - राम बलदेव के साथ। महाराज वसुदेव की एक रानी का नाम रोहिणी था । रोहिणी ने एक पुण्यवान् तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। वह परम अभिराम सुन्दर था, इसलिए उसका नाम "राम" रखा गया। आगे चलकर अत्यन्त बलवान् और पराक्रमी होने के कारण राम के साथ " बल" विशेषण और जुड़ गया और वे राम, बलराम, बलभद्र और बल आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध हो गये। जैनशास्त्रों के अनुसार बलदेव एक पद विशेष भी है । प्रत्येक वासुदेव के बड़े भाई बलदेव कहलाते हैं, ये स्वर्ग या मोक्षगामी होते हैं । बलराम नौवें बलदेव थे । बलदेव और वासुदेव का प्रेम अनुपम और अद्वितीय होता है। महाराज कृष्ण के बड़े भाई बलदेव राम को ही सूत्रकार ने " रामेण बलदेवेण " इन पदों से व्यक्त किया है ।
'दाहिणवेयालिं अभिमुहे जुहिट्ठिल्लपामोक्खाणं, पंचण्हं पंडवाणं पंडुरायपुत्ताणं पासं पंडुमहुरं संपत्थिए" का अर्थ है - दक्षिणसमुद्र के किनारे पांडुराजा के पुत्र युधिष्ठिर आदि पांचों पांडवों के पास पाण्डु मथुरा की ओर चल दिये।
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द्वारका नगरी के दग्ध हो जाने पर कृष्ण बड़े चिन्तित थे । उन्होंने बलराम से कहा- - औरों को शरण देनेवाला कृष्ण आज किस की शरण में जाये? इसके उत्तर में बलराम कहने लगे - पाण्डवों की आपने सदा सहायता की है, उन्हीं के पास चलना ठीक है। उस समय पाण्डव हस्तिनापुर से निर्वासित होकर पाण्डुमथुरा में रह रहे थे । उनके निर्वासन की कथा ज्ञाताधर्मकथा से जान लेनी चाहिए ।
बलराम की बात सुनकर कृष्ण बोले- जिनको सहारा दिया हो, उनसे सहारा लेना लज्जास्पद है, फिर सुभद्रा (अर्जुन की पत्नी) अपनी बहिन है । बहिन के घर रहना भी शोभास्पद नहीं है ।
कृष्ण की तर्क-संगत बात सुनकर बलराम कहने लगे - भाई ! कुन्ती तो अपनी बूआ है, बूआ के घर जाने में अपमानजनक कोई बात नहीं ।