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पंचम वर्ग]
[९५ विवेचन-पिछले सूत्रों में श्रीकृष्ण वासुदेव भगवान् अरिष्टनेमि से अपने मृत्यु-वृत्तान्त की और नूतन जन्म कहाँ किस स्थिति में होगा, इस सम्बन्ध की जिज्ञासा का समाधान प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात् धार्मिक घोषणा करवाते हैं। उनकी जिज्ञासा के समाधान में भगवान् अरिष्टनेमि ने उनके तृतीय पृथ्वी में उत्पन्न होने और फिर भावी तीर्थंकर चौबीसी में १२ वें अमम नाम के तीर्थंकर होने का भविष्य प्रकट किया है।
कृष्ण को कृष्ण वासुदेव कहा जाता है। वासुदेव शब्द का व्याकरण के आधार पर अर्थ होता है"वसुदेवस्य अपत्यं पुमान् वासुदेवः।" वसुदेव के पुत्र को वासुदेव कहते हैं। कृष्ण के पिता का नाम वसुदेव था, अत: इनको वासुदेव कहते हैं । वासुदेव शब्द सामान्य रूप से कृष्ण का वाचक है-कृष्ण का दूसरा नाम है, परन्तु वासुदेव का उक्त अर्थ मान्य होने पर भी यह शब्द जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द बन गया है। अतएव सभी अर्धचक्रवती वासुदेव शब्द से कहे जाते हैं। जैन-परम्परा में वासुदेव नौ कहे गए हैं - १. त्रिपृष्ठ, २. द्विपृष्ठ, ३. स्वयंभू, ४. पुरुषोत्तम, ५. पुरुषसिंह, ६. पुरुष-पुण्डरीक, ७. दत्त, ८. नारायण (लक्ष्मण), ९. कृष्ण। इनमें कृष्ण का अंतिम स्थान है। वासुदेव का पारिभाषिक अर्थ है- जो सात रत्नों, छह खंडों में से तीन खंडों का अधिपति हो तथा जो अनेकविध ऋद्धियों से सम्पन्न हो। जैनदृष्टि से वासुदेव प्रतिवासुदेव को जीत कर एवं मार कर तीन खंड पर राज्य किया करते हैं। इसके अतिरिक्त जैन परम्परा ने २८ लब्धियों में से वासुदेव भी एक लब्धि मानी है। तीन खंड तथा सात रत्नों के स्वामी वासुदेव कहलाते हैं, इस पद का प्राप्त होना वासुदेव लब्धि है। वासुदेव में महान् बल होता है। इस बलं का उपमा द्वारा वर्णन करते हुए जैनाचार्य कहते हैं – कूप के किनारे बैठे हुए और भोजन करते हुए वासुदेव को जंजीरों से बांध कर यदि चतुरंगिणी सेना सहित सोलह हजार राजा मिलकर खींचने लगे तो भी वे उन्हें खींच नहीं सकते, किन्तु उसी जंजीर को बाएं हाथ से पकड़ कर वासुदेव अपनी ओर खींचे तो उन्हें आसानी से खींच सकता है।
जैन आगमों में जिन कृष्ण का उल्लेख है वे ऐसे ही वासुदेव हैं, वासुदेव-लब्धि से सम्पन्न हैं। अन्तगडसूत्र में एक वासुदेव कृष्ण का वर्णन किया है। सनातन-धर्मियों के साहित्य में वासुदेव शब्द की जैन-शास्त्र सम्मत व्याख्या देखने में नहीं आती। वैदिक साहित्य में वासुदेव पदविशेष या लब्धिविशेष है" ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता।
अन्तगडसूत्र तथा अन्य आगमों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वासुदेव कृष्ण भगवान् अरिष्टनेमि के अनन्य श्रद्धालु भक्त थे, उपासक थे। यही कारण है कि भगवान् के द्वारका में पधारने पर वे बड़ी सजधज के साथ दर्शनार्थ उनकी सेवा में उपस्थित होते हैं, अपने परिवार को साथ ले जाते हैं, उनकी धर्मदेशना सुनते हैं। भगवान् से द्वारकादाह की बात सुनकर स्वयं भगवान् के चरणों में दीक्षित न हो सकने के कारण आकुल होते हैं। जालिकुमार आदि राजकुमारों के दीक्षित होकर आत्म-कल्याणोन्मुख होने से उनकी प्रशंसा करते हैं। इन सब बातों से प्रमाणित होता है कि वासुदेव कृष्ण भगवान् अरिष्टनेमि के अनुयायी थे। उनके मार्ग पर चलने वालों को सहयोग देते थे, क्षमता न होने पर भी उस पर स्वयं चलने की अभिलाषा रखते थे। संक्षेप में कहा जाये तो कृष्ण महाराज जैन धर्मावलम्बी थे।
भद्दिलपुर निवासी सेठ नाग के छह पुत्र, जो भगवान् अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षित हुए थे, वासुदेव कृष्ण के ममेरे भाई थे। गजसुकुमार तो वासुदेव कृष्ण के अनुज भाई ही थे। इस तरह महाराज कृष्ण के ये सात भाई भगवान् अरिष्टनेमि के पास जैन साधु बने थे।
जालिकुमार, मयालिकुमार, उपयालिकुमार, पुरुषषेणकुमार और वारिषेणकुमार- ये पांचों महाराज