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तृतीय वर्ग]
[८३ तए णं तस्स सोमिलमाहणस्स कल्लं जाव' जलंते अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पण्णे-एवं खलु कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्ठणेमिं पायवंदए निग्गए। तं नायमेयं अरहया, विण्णायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, सिट्ठमेयं अरहया भविस्सइ कण्हस्स वासुदेवस्स। तं न नज्जइ णं कण्हे वासुदेवे ममं केणइ कु-मारेणं मारिस्सइ त्ति कटु भीए तत्थे तसिए उव्विग्गे संजायभए सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ। कण्हस्स वासुदेवस्स बारवई नयरि अणुप्पविसमाणस्स पुरओ सपक्खि सपडिदिसिं हव्वमागए।
भगवान् अरिष्टनेमि द्वारा अपने प्रश्न का समाधान प्राप्त करके कृष्ण वासुदेव फिर भगवान् के चरणों में निवेदन करने लगे-"भगवन् ! मैं उस पुरुष को किस तरह पहचान सकता हूँ?" श्री कृष्ण के इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान् अरिष्टनेमि कहने लगे-'कृष्ण ! यहाँ से लौटने पर जब तुम द्वारका नगरी में प्रवेश करोगे तो उस समय एक पुरुष तुम्हें देखकर भयभीत होगा, वह वहाँ पर खड़ा-खड़ा ही गिर जायेगा। आयु की समाप्ति हो जाने से मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। उस समय तुम समझ लेना कि यह वही परुष है।' अरिष्टनेमि भगवान द्वारा अपने प्रश्न का उत्तर सुनकर भगवान् अरिष्टनेमि को वंदन एवं नमस्कार करके श्रीकृष्ण ने वहाँ से प्रस्थान किया और अपने प्रधान हस्तिरत्न पर बैठकर अपने घर की ओर रवाना हुए।
. उधर उस सोमिल ब्राह्मण के मन में दूसरे दिन सूर्योदय होते ही इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआनिश्चय ही कृष्ण वासुदेव अरिहंत अरिष्टनेमि के चरणों में वंदन करने के लिये गये हैं। भगवान् तो सर्वज्ञ हैं, उनसे कोई बात छिपी नहीं है। भगवान् ने गजसुकुमाल की मृत्यु सम्बन्धी मेरे कुकृत्य को जान लिया होगा, (आद्योपान्त) पूर्णतः विदित कर लिया होगा। यह सब भगवान् से स्पष्ट समझ सुन लिया होगा। अरिहंत अरिष्टनेमि ने अवश्यमेव कृष्ण वासुदेव को यह सब बता दिया होगा। तो ऐसी स्थिति में कृष्ण वासुदेव रुष्ट होकर मुझे न मालूम किस प्रकार की कुमौत से मारेंगे। इस विचार से डरा हुआ वह अपने घर से निकलता है, निकलकर द्वारका नगरी में प्रवेश करते हुए कृष्ण वासुदेव के एकदम सामने आ पड़ता है।
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि सोमिल ब्राह्मण श्रीकृष्ण से अपने जीवन को सुरक्षित रखने के विचार से द्वारका नगरी से बाहर भागा जा रहा था, परंतु अचानक श्रीकृष्ण भी उसी मार्ग से निकले और अचानक दोनों का सामना हो गया।
इस सूत्र में प्रयुक्त 'ठितिभेएणं' का अर्थ है-आयु की स्थिति का नाश। जिस प्रकार जल के संयोग से मिश्री या बताशा अपनी कठिनता को छोड़कर जल में विलीन हो जाता है तथा जैसे अग्नि का संपर्क पाकर घृत पतला हो जाता है, उसी प्रकार सोपक्रम आयुष्यकर्म भी अध्यवसान आदि निमित्त विशेष के मिलने पर क्षय को प्राप्त हो जाता है। अतः व्यवहार-नय के अनुसार संसारी जीवों के आयु-क्षय को अकाल मृत्यु के नाम से व्यवहृत किया जाता है। तं नायमेयं अरहया....
सिट्ठमेयं अरहया- इस पद में ज्ञात, विज्ञात, श्रुत और शिष्ट ये चार पद हैं । सामान्य रूप से यह जानना कि गजसुकुमाल मुनि का प्राणान्त हो गया है, यह ज्ञात होना है। विशेष रूप से जानना कि सोमिल ब्राह्मण ने अमुक अभिप्राय से गजसुकुमाल मुनि का अग्नि द्वारा घात किया है, विज्ञात होना है। भाव यह है कि सामान्य बोध और विशेष बोध के संसूचक ज्ञात और विज्ञात ये दोनों शब्द हैं। सुयमेयं-के दो अर्थ होते हैं- १. स्मृतमेतत् और २. श्रुतमेतत् । आचार्य अभयदेवसूरि ने प्रथम अर्थ ग्रहण