Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[अन्तकृद्दशा आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज ने अपने अन्तगड सूत्र की वृत्ति (पृ. १८९) में सोमिल ब्राह्मण तथा मुनि गजसुकुमाल के अतीत कालीन कर्म-सम्बन्ध को लेकर परंपरागत कथा दी है
एक पुरुष की दो पत्नियाँ थीं, एक को बच्चा था, एक को नहीं था। बच्चा-रहित स्त्री ने बहुतेरे उपाय किये परंतु उसे बच्चा नहीं हुआ। ईर्ष्यावश उसने निर्णय किया कि कभी अवसर पाकर मैं सौत के बच्चे को मार डालूंगी।
दुर्भाग्य से बच्चे के सिर में फुसिया निकलीं, अनेकों इलाज करने पर भी दर्द नहीं मिटा तब बच्चे की माँ ने सौत से उपाय पूछा और अवसर पाकर उसने पूडा पकाया और गरम-गरम पूडा बच्चे के सिर पर बाँध दिया। परिणामत: बच्चे की मृत्यु हुई। इससे वह अत्यन्त प्रसन्न हुई।
हजारों जन्म-जन्मांतर की घाटियाँ पार करती हुई वही नारी एक दिन माता देवकी के घर गजसुकुमाल के रूप में पैदा हुई और वह बच्चा द्वारका नगरी में सोमिल ब्राह्मण के रूप में उत्पन्न हुआ।
कथाकार के अनुसार निन्यानवै लाख जन्म पहले गजसुकुमाल के जीव ने किसी समय सोमिल ब्राह्मण के जीव के सिर पर गरम-गरम पूडा बाँधकर उसे मारा था। अतः इस जन्म में सोमिल.ने जलती हई अंगीठी रखकर बदला लिया।
अणेग भव....कम्म-अर्थात् अनेक शब्द एक से अधिक अर्थ का, भव शब्द जन्म का, शतसहस्र शब्द लाखों और संचित शब्द उपार्जित किए हुए, अर्थ का बोधक है। कर्म उस पौद्गलिक शक्ति का नाम है जो आत्मा को संसार-अटवी में भ्रमण कराने वाली है।
____ 'उदीरेमाणेणं' अर्थात् उदीरणा करके। जैन शास्त्रों में कर्म की चार अवस्थाएँ बताई गई हैंबंध, उदय, उदीरणा और सत्ता। मिथ्यात्वादि के निमित्त से ज्ञानावरणीय आदि के रूप में परिणत होकर कर्म-पुद्गलों का आत्मा के साथ दूध-पानी की तरह मिल जाना बंध है। अबाधाकाल समाप्त होने पर और उदय-काल-फलदान का समय आने पर कर्मों का शुभाशुभ फल देना उदय है। अबाधाकाल (बंधे हुए कर्मों का जब तक आत्मा को फल नहीं मिलता वह काल) व्यतीत हो चुकने पर भी जो कर्म-दलिक बाद में उदय में आनेवाले हैं, उनको प्रयत्न-विशेष से खींच कर उदय-प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना उदीरणा है। बंधे हुए कर्मों का अपने स्वरूप को न छोड़ कर आत्मा के साथ लगे रहना सत्ता है। उदय और उदीरणा में यह अन्तर है कि उदय में किसी भी प्रकार के प्रयत्न के बिना स्वाभाविक क्रम से कर्मों के फल का भोग होता है और उदीरणा में प्रयत्न करने पर ही कर्मफल का भोग होता है। प्रस्तुत में मुनि गजसुकुमाल ने जो कर्म-फल का उपभोग किया है, वह स्वाभाविक क्रम से नहीं किया, किन्तु सोमिल ब्राह्मण के प्रयत्न विशेष से कर्मों का उपभोग कराया गया है, अतः यहाँ कर्मों की उदीरणा अर्थ अपेक्षित है। सोमिल ब्राह्मण का मरण
२८-तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्टनेमिं एवं वयासी-से णं भंते! पुरिसे मए कहं जाणियव्वे? तए णं अरहा अरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-जे णं कण्हा! तुम बारवईए नयरीए अणुप्पविसमाणं पासेत्ता ठियए चेव ठिइभेएणं कालं करिस्सइ, तण्णं तुम जाणिज्जासि "एस णं से पुरिसे।" तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्ठनेमिं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव आभिसेयं हत्थिरयणं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिं दुरुहइ, दुरुहित्ता जेणेव बारवई नयरी जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए।