Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 131
________________ ९०] [ अन्तकृद्दशा किया जा चुका है। यावत् श्रीकृष्ण वासुदेव वहाँ राज्य कर रहे थे । श्रीकृष्ण वासुदेव की पद्मावती नाम की महारानी थी । यहाँ औपपातिक सूत्र के अनुसार राज्ञीवर्णन जान लेना चाहिए । उस काल उस समय में अरिहंत अरिष्टनेमि तीर्थंकर संयम और तप से आत्मा को भावित कर विचरते हुए द्वारका नगरी में पधारे। श्रीकृष्ण वंदन - नमस्कार करने हेतु राजप्रासाद से निकल कर प्रभु के पास पहुँचे यावत् प्रभु अरिष्टनेमि की पर्युपासना करने लगे। उस समय पद्मावती देवी ने भगवान् के आने की खबर सुनी तो वह अत्यन्त प्रसन्न हुई । वह भी देवकी महारानी के समान धार्मिक रथ पर आरूढ़ होकर भगवान् को वंदन करने गई । यावत् नेमिनाथ की पर्युपासना करने लगी । अरिहंत अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव, पद्मावती देवी और जन परिषदा को धर्मकथा कही । धर्मकथा सुनकर जन परिषदा वापिस लौट गई । द्वारकाविनाश का कारण २ - तणं से कहे वासुदेवे अरहं अरिट्ठणेमिं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी"इमीसे णं भंते! बारवईए नयरीए नवजोयणवित्थिन्नाए जाव' देवलोगभूयाए किंमूलाए विणासे भविस्सइ ? 'कण्हाइ !' अरहा अरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी 'एवं खलु कण्हा! इमीसे बारवईए नयरीए नवजोयणवित्थिन्नाए जाव' देवलोगभूयाए सुरग्गिदीवायणमूलाए विणासे भविस्सइ । ' तब कृष्ण वासुदेव ने भगवान् नेमिनाथ को वंदन - नमस्कार करके उनसे इस प्रकार पृच्छा की 'भगवन् ! बारह योजन लंबी और नव योजन चौड़ी यावत् साक्षात् देवलोक के समान इस द्वारका नगरी का विनाश किस कारण से होगा ?" 44 - - 'हे कृष्ण !' इस प्रकार संबोधित करते हुए अरिहंत अरिष्टनेमि ने उत्तर दिया 'हे कृष्ण ! निश्चय ही बारह योजन लम्बी और नव योजन चौड़ी यावत् प्रत्यक्ष स्वर्गपुरी के समान इस द्वारका नगरी का विनाश मदिरा (सुरा), अग्नि और द्वैपायन ऋषि के कोप के कारण होगा।' श्रीकृष्ण का उद्वेग : उसका शमन १. २. देखिये - वर्ग १, सूत्र ५. ३ – कण्हस्स वासुदेवस्स अरहओ अरिट्ठणेमिस्स अंतिए एयं सोच्चा निसम्म अयं अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - 'धण्णा णं ते जालि - मयालि-उवयालि - पुरिससेणवारिसेण-पज्जुण्ण-संब- अणिरुद्ध - दढणेमि - सच्चणेमि-प्पभियओ कुमारा जे णं चइत्ता हिरण्णं, जाव [ चइत्ता सुवण्णं एवं धण्णं धणं बलं वाहणं कोसं कोट्ठागारं पुरं अंतेउरं चइत्ता विउलं धणकणग- रयण-मणि-मोत्तिय संख-सिल-प्पवाल - संतसार - सावएज्जं विच्छड्डइत्ता विगोवइत्ता दाणं दाइयाणं ]' परिभाइत्ता, अरहओ अरिट्ठणेमिस्स अंतियं मुंडा जाव [ भवित्ता अगाराओ अणगारियं ] पव्वइया । अहणणं अधण्णे अकयपुण्णे रज्जे य जाव [ रट्ठे य कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य] अंतेउरे य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववण्णे नो संचाएमि

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