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[ अन्तकृद्दशा
अरिहंत अरिष्टनेमि भगवान् ने कहा- 'हे कृष्ण ! निश्चय ही सभी वासुदेव पूर्व भव में निदानकृत ( नियाणा करने वाले) होते हैं, इसलिये मैं ऐसा कहता हूं कि ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि वासुदेव कभी प्रव्रज्या अंगीकार करें ।'
विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में अरिष्टनेमि भगवान् से पूछे गये कुछ प्रश्नों का विवरण प्रस्तुत किया गया है । द्वारका के विनाश का कारण सुनकर श्रीकृष्ण का संयमियों के प्रति अनुराग बढ़ा और साथ ही स्वयं के प्रति ग्लानि हुई कि वे स्वयं दीक्षा नहीं ले सकते हैं! उनकी इस व्यथा के समाधान में भगवान् ने कहा - -तुम वासुदेव हो और तीन काल में कभी कोई वासुदेव दीक्षा नहीं ले सकता, क्योंकि पूर्व में उन्होंने निदान किया होता है ।
'निदान' जैन परम्परा का अपना एक पारिभाषिक शब्द है । मोहनीय कर्म के उदय से कामभोगों की इच्छा होने पर साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका का अपने चित्त में संकल्प कर लेना कि मेरी तपस्या से मुझे अमुक फल की प्राप्ति हो, उसे निदान कहते हैं। जन साधारण में इसे नियाणा कहा जाता है। निदान कल्याण- साधक नहीं। जो व्यक्ति निदान करके मरता है, उसका फल प्राप्त करने पर भी उसे निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती। वह बहुत काल तक संसार में भटकता है। दशाश्रुतस्कंध की दशवीं दशा में निदान के नव कारण बताये हैं । वे इस प्रकार हैं
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१.
२.
३.
४.
५.
एक पुरुष किसी समृद्धिशाली को देखकर निदान करता है।
स्त्री अच्छा पुरुष प्राप्त करने के लिये निदान करती है।
पुरुष सुन्दर स्त्री के लिए निदान करता है।
स्त्री किसी सुखी एवं सुन्दर स्त्री को देखकर निदान करती है ।
कोई जीव देवगति में देवरूप से उत्पन्न होकर अपनी तथा दूसरी देवियों को वैक्रिय शरीर द्वारा भोगने का निदान करता है।
६. कोई जीव देवभव में सिर्फ अपनी देवी को भोगने का निदान करता है।
७.
कोई जीव अगले भव में श्रावक बनने का निदान करता है। 1
८. कोई जीव देवभव में अपनी देवी को बिना वैक्रिय के भोगने का निदान करता है ।
९.
कोई जीव अगले भव में साधु बनने का निदान करता है।
इनमें से पहले चार प्रकार के निदान करनेवाला जीव केवली भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म को सुन भी नहीं सकता। पांचवां निदान करने वाला जीव धर्म को सुन तो सकता है, पर दुर्लभबोधि होता है और बहुत काल तक संसार में परिभ्रमण करता है। छठे निदानवाला जीव जिनधर्म को सुनकर और समझकर भी दूसरे धर्म की ओर रुचि रखता है। सातवें निदान वाला जीव सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है, धर्म पर श्रद्धा कर सकता है, किन्तु व्रत अंगीकार नहीं कर सकता है। आठवें निदान वाला श्रावक का व्रत ले सकता है, पर साधु नहीं हो सकता। नौवें निदान वाला जीव साधु हो सकता है, पर उसी भव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर
सकता ।