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[अन्तकृद्दशा सर्वोत्तम है, आदि पूर्वोक्त कथन यहाँ दोहरा लेना चाहिए, यावत् बाद में मुक्तभोगी होकर प्रव्रज्या अंगीकार कर लेना। परन्तु हे माता-पिता ! इस प्रकार यह निर्ग्रन्थ प्रवचन क्लीव-हीन संहनन वाले, कायर-चित्त की स्थिरता रहित, कुत्सित, इस लोक संबंधी विषय सुख की अभिलाषा करने वाले, परलोक के सुख की इच्छा न करने वाले, सामान्य जन के लिये ही दुष्कर है। धीर एवं दृढ़ संकल्प वाले पुरुष को इसका पालन करना कठिन नहीं है। इसका पालन करने में कठिनाई क्या है? अतएव हे माता-पिता! आपकी अनुमति पाकर मैं अरिहंत अरिष्टनेमि के समीप प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ ।
तदनन्तर कृष्ण वासुदेव गजसुकुमार के विरक्त होने की बात सुनकर गजसुकुमार के पास आये और आकर उन्होंने गजसुकुमार कुमार का आलिंगन किया, आलिंगन कर गोद में बिठाया, गोद में बिठाकर इस प्रकार बोले
' 'हे देवानुप्रिय! तुम मेरे सहोदर छोटे भाई हो, इसलिये मेरा कहना है कि इस समय भगवान् अरिष्टनेमि के पास मुंडित होकर अगार से अनगार बनने रूप दीक्षा ग्रहण मत करो। मैं तुमको द्वारका नगरी में बहत बडे समारोह के साथ राज्याभिषेक से अभिषिक्त करूंगा।' तब गजसकुमार कुमार कृष्ण वासुदेव द्वारा ऐसा कहे जाने पर मौन रहे । कुछ समय मौन रहने के बाद गजसुकुमार अपने बड़े भाई कृष्ण वासुदेव एवं माता-पिता को दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार बोले
'हे देवानुप्रियो ! वस्तुतः मनुष्य के कामभोग एवं देह [अपवित्र, अशाश्वत, क्षणविध्वंसी और मल-मूत्र-कफ-वमन-पित्त-शुक्र एवं शोणित के भंडार हैं । गंदे उच्छ्वास-निश्वास वाले हैं, खराब मूत्र, मल और पीव से अत्यन्त परिपूर्ण हैं, मल, मूत्र, कफ, नासिकामल, वमन, पित्त, शुक्र और शोणित से उत्पन्न होने वाले हैं। यह मनुष्य-शरीर और ये कामभोग अस्थिर हैं , अनित्य हैं एवं सड़न-गलन एवं विध्वंसी होने के कारण आगे पीछे कभी न कभी अवश्य] नष्ट होने वाले हैं। इसलिये हे देवानुप्रियो ! मैं चाहता हूं कि आपकी आज्ञा मिलने पर मैं अरिहंत अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या (श्रमण दीक्षा) ग्रहण कर लूं।' गजसुकुमार की दीक्षा
२१-तए णं तं गयसुकुमालं कण्हे वासुदेवे अम्मापियरो य जाहे नो संचाएन्ति बहुयाहिं अणुलोमाहिं जाव' आघवित्तए ताहे अकामाई चेव (गयसुकुमालं कुमारं) एवं वयासी-तं इच्छामो णं ते जाया! एगदिवसमवि रज्जसिरिं पासित्तए।
___ तए. णं गयसुकुमाले कुमारे कण्हं वासुदेवं अम्मापियरं च अणुवत्तमाणे तुसिणीए संचिट्ठइ। जाव-[तए णं से गयसुकुमालस्स पिया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! गयसुकुमालस्स कुमारस्स महत्थं, महग्धं, महरिहं विपुलं रायाभिसेयं उवट्ठवेह। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तहेव जाव पच्चप्पिणंति। तए णं तं गयसुकुमालं कुमारं अम्मा-पियरो सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहं णिसीयाति जहा रायप्पसेणइज्जें, जाव अट्ठसएणं सोवणियाणं कलसाणं सव्विड्डीए जाव महया रवेणं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचंति।
महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचित्ता करयल-जाव जएणं विजएणं वद्धावेंति, १. पूर्व सूत्र में आ गया है।