Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 118
________________ तृतीय वर्ग] [७७ गया है। "तदावरणिज्जाणं कम्माणं"- इस पद में कर्म विशेष्य है और 'तदावरणीय' यह उसका विशेषण है। कर्म शब्द आत्मप्रदेशों से मिले कर्माणुओं का बोधक है और ज्ञान-दर्शन आदि आत्मिक गुणों को ढंकनेवाले, इस अर्थ का सूचक तदावरणीय शब्द है। "कम्मरयविकिरणकरं"-कर्म-रजोविकिरण-करं अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि कर्म रूप रजमल का विकिरण-नाश करनेवाले को कमर्रजोविकिरण-कर कहते हैं। ___'अपुव्वकरणं-अपूर्वकरणम्, आत्मनोऽभूतपूर्वं शुभपरिणामम्-अर्थात्-अपूर्वकरण शब्द जिसकी पहले प्राप्ति नहीं हुई-इस अर्थ का बोधक है। यह आठवें 'निवृत्तिबादर गुणस्थान' का भी.परिचायक माना गया है। इस गुणस्थान से दो श्रेणियां आरंभ होती हैं - उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। उपशमश्रेणी वाला जीव मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम करता हुआ ग्यारहवें गुणस्थान तक जाकर रुक जाता है और नीचे गिर जाता है। क्षपकश्रेणी वाला जीव दशवें गुणस्थान से सीधा बारहवें गुणस्थान पर जाकर अप्रतिपाती हो जाता है। आठवें गुणस्थान में आरूढ हुआ जीव क्षपकश्रेणी से उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ जब बारहवें गुणस्थान में पहुंच जाता है तब समस्त घाती कर्मों का क्षय करता हुआ कैवल्य प्राप्त कर लेता है। तत्पश्चात् तेरहवें गुणस्थान में स्थिर होता है। आयु पूर्ण होने पर चौदहवां गुणस्थान प्राप्त करके परम कल्याण रूप मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है। प्रस्तुत में सूत्रकार ने "अपुव्वकरणं" पद देकर गजसुकुमाल के साथं अपूर्वकरण अवस्था का सम्बन्ध सूचित किया है। भाव यह है कि गजसुकुमाल मुनि ने आठवें गुणस्थान में प्रविष्ट होकर क्षपकश्रेणी को अपना लिया था। अणते......दंसणे आदि पदों की व्याख्या इस प्रकार है-१. अनंत-अंत रहित, जिसका कभी अन्त न हो, जो सदा काल बना रहे । २. अनुत्तर-प्रधान-जिससे बढ़कर अन्य कोई ज्ञान नहीं है, सबसे ऊँचा। ३. निर्व्याघात-व्याघात-रुकावट रहित। ४. निरावरण- जिस पर कोई आवरण-पर्दा नहीं है, चारों ओर से ज्ञान-प्रकाश की वर्षा करने वाला। ५. कृत्स्न-संपूर्ण, जो अपूर्ण नहीं है। ६. प्रतिपूर्ण-संसार के सब ज्ञेय पदार्थों को अपना विषय बनानेवाला, जिससे संसार का कोई पदार्थ ओझल नहीं है। सिद्ध-बुद्ध आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार है-१. सिद्ध-जो कृतकृत्य हो गये हैं, जिनके समस्त कार्य सिद्ध-पूर्ण हो चुके हैं। २. बुद्ध-जो लोक अलोक के सर्व पदार्थों के ज्ञाता हैं। ३. मुक्त -जो समस्त कर्मों से रहित हो चुके हैं। ४. परिनिर्वात-समस्त कर्म-जनित विकारों के नष्ट हो जाने से जो शान्त हैं। ५. सर्वदुःख-प्रहीण-जिनके समस्त शारीरिक तथा मानसिक दुःख नष्ट हो चुके हैं। वासुदेव कृष्ण द्वारा वृद्ध की सहायता , २४-तए णं से कण्हे वासुदेवे कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव [ फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि, अहपंडुरे पभाए, रत्तासोगपगास-किंसुय-सुयमुह-गुंजद्धराग-बंधुजीवगपारावयचलण-नयण-परहुयसुरत्तलोयण-जासुमिणकुसुम-जलियजलण-तवणिज्जकलसहिंगुलयनियर-रूवाइरे गरे हन्त-सस्सिरीए दिवागरे अहक्कमेण उदिए, तस्स दिणकरपरंपरावयारपारद्धम्मि अंधयारे, बालातवकुंकुमेणं खइए व्व जीवलोए, लोयणविसआणुआसविगसंतविसददंसियम्मि लोए, कमलागरसंडबोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते ] बहाए जाव' विभूसिए हत्थिखंधवरगए सकोरेंट मल्ल दामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं १. देखिए-तृतीय वर्ग का तेरहवां सूत्र।

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