________________
[अन्तकृद्दशा
७८]
सेयवरचामराहिं उद्धव्वमाणीहिं महयाभड-चडगर - पहकरवंद - परिक्खित्ते बारवई नयरिं मज्झमज्झेणं जेणेव अरहा अरिट्ठनेमी तेणेव पहारेत्थ गमणाए ।
तणं से कहे वासुदेवे बारवईए नयरीए मज्झंमज्झेणं निग्गच्छमाणे एक्कं पुरिसं जुण्णं जरा-जज्जरिय-देहं जाव [ आउरं झूसियं पिवासियं दुब्बलं ] किलंतं महइमहालयाओ इट्टगरासीओ एगमेगं इट्टगं गहाय बहिया रत्थापहाओ अंतोगिहं अणुप्पविसमाणं पास |
तए णं से कहे वासुदेवे तस्स पुरिसस्स अणुकंपणट्ठाए हत्थिखंधवरगए चेव एगं इट्टगं गेves, गेण्हित्ता बहिया रत्थापहाओ अंतोघरंसि अणुप्पवेसिए ।
तणं कण्हेणं वासुदेवेणं एगाए इट्टगाए गहियाए समाणीए अणेगेहिं पुरिसेहिं से महालए इट्टगस्स रासी बहिया रत्थापहाओ अंतोघरंसि अणुप्पवेसिए ।
तदनन्तर कृष्ण वासुदेव दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर [जब प्रफुल्लित कमलों के पत्ते विकसित हुए, काले मृग के नेत्र निद्रारहित होने से विकस्वर हुए। फिर वह प्रभात पाण्डुर- श्वेत वर्ण वाला हुआ। लाल अशोक की कान्ति, पलाश के पुष्प, तोते की चोंच, चिरमी के अर्द्धभाग, दुपहरी के पुष्प, कबूतर के पैर और नेत्र, जासोद के फूल, जाज्वल्यमान अग्नि, स्वर्णकलश तथा हिंगलू के समूह की लालिमा से भी अधिक लालिमा से जिसकी श्री सुशोभित हो रही है, ऐसा सूर्य क्रमशः उदित हुआ। सूर्य की किरणों का समूह नीचे उतर कर अंधकार का विनाश करने लगा । बाल-सूर्य रूपी कुंकुम से मानो जीवलोक व्याप्त हो गया। नेत्रों के विषय का प्रचार होने से विकसित होने वाला लोक स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा। सरोवरों में स्थित कमलों के वन को विकसित करने वाला तथा सहस्र किरणों वाला दिवाकर तेज से जाज्वल्यमान हो गया। ऐसा होने पर ] कृष्ण वासुदेव स्नान कर वस्त्रालंकारों से विभूषित हो, हाथी पर आरूढ हुए। कोरंट पुष्पों की माला वाला छत्र धारण किया हुआ था । श्वेत एवं उज्ज्वल चामर उनके दायें-बायें दुलाये जा रहे थे । वे जहाँ भगवान् अरिष्टनेमि विराजमान थे, वहाँ के लिये रवाना हुए।
तब कृष्ण वासुदेव ने द्वारका नगरी के मध्य भाग से जाते समय एक पुरुष को देखा, जो अति वृद्ध, जरा से जर्जरित [ अति क्लान्त, कुम्हलाया हुआ दुर्बल] एवं थका हुआ था । वह बहुत दुःखी था । उसके घर के बाहर राजमार्ग पर ईंटों का एक विशाल ढेर पड़ा था जिसे वह वृद्ध एक-एक ईंट करके अपने घर में स्थानान्तरित कर रहा था । तब उन कृष्ण वासुदेव ने उस पुरुष की अनुकंपा के लिये हाथी पर बैठे हुए ही एक ईंट उठाई, उठाकर बाहर रास्ते से घर के भीतर पहुंचा दी।
तब कृष्ण वासुदेव के द्वारा एक ईंट उठाने पर (उनके अनुयायी) अनेक सैकड़ों पुरुषों द्वारा वह बहुत बड़ा ईंटों का ढेर बाहर गली में से घर के भीतर पहुंचा दिया गया।
गजसुकुमाल की सिद्धि की सूचना
२५ - तए णं से कण्हे वासुदेवे बारवईए नयरीए मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव अरहा अरिट्ठनेमी तेणेव उवागए, उवागच्छित्ता जाव [ अरहं अरिट्ठनेमिं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता ] वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी
"कहि णं भंते! से ममं सहोदरे कणीयसे भाया गयसुकुमाले अणगारे जं णं अहं वंदामि
नम॑सामि?"
-