Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 116
________________ तृतीय वर्ग] [७५ भारियाए अत्तयं सोमं दारियं अदिट्ठदोसपत्तियं कालवत्तिणिं विप्पजहित्ता मुंडे जाव पव्वइए। तं सेयं खलु मम गयसुकुमालस्स कुमारस्स वेरनिज्जायणं करेत्तए; एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता दिसापडिलेहणं करेइ, करेत्ता सरसं मट्टियं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव गयसुकुमाले अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गयसुकुमालस्स अणगारस्स मत्थए मट्टियाए पालिं बंधइ, बंधित्ता जलंतीओ चिययाओ फुल्लियकिंसुयसमाणे खरिंगाले कहल्लेणं' गेण्हइ, गेण्हित्ता गयसुकुमालस्स अणगारस्स मत्थए पक्खिवइ, पक्खिवित्ता भीए तत्थे तसिए उव्विग्गे संजायभए तओ खिप्पामेव अवक्कमइ, अवक्कमित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए।" इधर सोमिल ब्राह्मण समिधा (यज्ञ की लकड़ी) लाने के लिये द्वारका नगरी के बाहर गजसुकुमाल अनगार के श्मशानभूमि में जाने से पूर्व ही निकला था। वह समिधा, दर्भ, कुश, डाभ एवं पत्रामोडों को लेता है। उन्हें लेकर वहाँ से अपने घर की तरफ लौटता है। लौटते समय महाकाल श्मशान के निकट (न अति दूर न अति सन्निकट) से जाते हुए संध्या काल की बेला में, जबकि मनुष्यों का गमनागमन नहीं के समान हो गया था, उसने गजसुकुमाल मुनि को वहाँ ध्यानस्थ खड़े देखा। उन्हें देखते ही सोमिल के हृदय में वैर भाव जागृत हुआ। वह क्रोध से तमतमा उठता है और मन ही मन इस प्रकार बोलता है अरे! यह तो वही अप्रार्थनीय का प्रार्थी (मृत्यु की इच्छा करने वाला), [दुरन्त-प्रान्त-लक्षण वाला, पुण्यहीन चतुर्दशी में उत्पन्न हुआ ह्री और श्री (लज्जा तथा लक्ष्मी) से] परिवर्जित, गजसुकुमाल कुमार है, जो मेरी सोमश्री भार्या की कुक्षि से उत्पन्न, यौवनावस्था को प्राप्त निर्दोष पुत्री सोमा कन्या को अकारण ही त्याग कर मुंडित हो यावत् श्रमण बन गया है इसलिये मुझे निश्चय ही गजसुकुमाल से इस वैर का बदला लेना चाहिये। इस प्रकार वह सोमिल सोचता है और सोचकर सब दिशाओं की ओर देखता है कि कहीं से कोई देख तो नहीं रहा है। इस विचार से चारों ओर देखता हुआ पास के ही तालाब से वह गीली मिट्टी लेता है, लेकर गजसुकुमाल मुनि के मस्तक पर पाल बाँधता है। पाल बाँधकर जलती हुई चिता में से फूले हुए किंशुक (पलाश) के फूल के समान लाल-लाल खैर के अंगारों को किसी खप्पर (ठीकरे) में लेकर उन दहकते हुए अंगारों को गजसुकुमाल मुनि के सिर पर रख देता है। रखने के बाद इस भय से कि कहीं उसे कोई देख न ले, भयभीत होकर घबरा कर, त्रस्त होकर एवं उद्विग्न होकर वह वहाँ से शीघ्रतापूर्वक पीछे की ओर हटता हुआ भागता है। वहाँ से भागता हुआ वह सोमिल जिस ओर से आया था उसी ओर चला जाता है। विवेचन-गजसुकुमाल के उग्र वैराग्य से अनभिज्ञ होने से तथा अपनी पुत्री के साथ विवाह नहीं करने के कारण क्रोध में अंधा हो कर सोमिल, ध्यानस्थ गजसुकुमाल मुनि के प्रति अत्यन्त क्रूर एवं नृशंस व्यवहार करता है। प्रस्तुत सूत्र में उसके पैशाचिक कृत्य का हृदयविदारक वर्णन प्रस्तुत किया गया है। _ 'सामिधेयस्स' की व्याख्या करते हुए टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि कहते हैं 'सामिधेयस्सत्ति'समित्समूहस्य।' यहाँ समित् का अर्थ है हवन में जलाई जाने वाली लकड़ी। आगे 'दब्भे कुसे पत्तामोडं' शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिनका टीका में इस प्रकार अर्थ किया है 'समिहाउत्ति' इन्धनभूता काष्ठिकाः, 'दब्भेत्ति' समूलान् दर्भान्, 'कुसेत्ति' दर्भाग्राणीति, पत्तामोडयं ति शाखिशाखा-शिखामोटितपत्राणि देवतार्चनार्थानीत्यर्थः- अर्थात्-समिधा इन्धनभूत लकड़ी को, मूलसहित डाभ-जड़ों वाली घास को दर्भ, डाभ के अग्रभाग को कुश तथा देवपूजन के लिये वृक्षों की शाखाओं के अग्रभाग से मुड़े हुए पत्तों को पत्रामोटित कहते हैं।

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