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तृतीय वर्ग] चोर, राजा, भागीदार और मृत्यु के लिये भी सामान्य है। यह सड़ने, पड़ने और विध्वस्त होने के स्वभाव वाला है। (मरण) के पश्चात् या पहले अवश्य त्याग करने योग्य है । हे माता-पिता! किसे ज्ञात है कि पहले कौन जायेगा और पीछे कौन जायेगा? अतएव मैं यावत् दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ।
तत्पश्चात् गजसुकुमाल के माता-पिता जब गजसुकुमाल को विषयों के अनुकूल आख्यापना (सामान्य रूप से प्रतिपादन करने वाली वाणी) से, प्रज्ञापना (विशेष रूप से प्रतिपादन करने वाली वाणी) से, संज्ञापना (संबोधन करने वाली वाणी) से, विज्ञापना (अनुनय-विनय करने वाली वाणी) से समझाने बुझाने, संबोधन करने और अनुनय करने में समर्थ न हुए तब प्रतिकूल तथा संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने वाली प्रज्ञापना से इस प्रकार कहने लगे
'हे पुत्र! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य (सत्पुरुषों के लिये हितकारी) है, अनुत्तर (सर्वोत्तम) है, कैवलिक-सर्वज्ञ कथित अथवा अद्वितीय है, प्रतिपूर्ण अर्थात् मोक्ष प्राप्त कराने वाले गुणों से परिपूर्ण है, नैयायिक अर्थात् न्याययुक्त या मोक्ष की ओर ले जाने वाला है, संशुद्ध अर्थात् सर्वथा निर्दोष है, शल्यकर्तन अर्थात् माया आदि शल्यों का नाश करने वाला है, सिद्धि का मार्ग है, मुक्ति का मार्ग (पापों के नाश का उपाय) है, निर्याण का (सिद्धि क्षेत्र का) मार्ग है, निर्वाण का मार्ग है और समस्त दुःखों को पूर्णरूपेण नष्ट करने का मार्ग है। जैसे सर्प अपने भक्ष्य को ग्रहण करने में निश्चल दृष्टि रखता है, उसी प्रकार इस प्रवचन में दृष्टि निश्चल रखनी पड़ती है। यह छुरे के समान एक धार वाला है, अर्थात् इस में दूसरी धार के समान अपवाद रूप क्रियाओं का अभाव है। इस प्रवचन के अनुसार चलना लोहे के जौ चबाना है। यह रेत के कवल के समान स्वादहीन है-विषयसुख से रहित है। इसका पालन करना गंगा नामक महानदी के पूर में सामने तिरने के समान कठिन है, भुजाओं से महासमुद्र को पार करना है, तीखी तलवार पर आक्रमण करने के समान है। महाशिला जैसी भारी वस्तुओं को गले में बाँधने के समान है। तलवार की धार पर चलने के समान है।
__ हे पुत्र! निर्ग्रन्थ श्रमणों को आधाकर्मी, औद्देशिक क्रीतकृत (खरीद कर बनाया हुआ), स्थापित (साधु के लिए रख छोड़ा हुआ), रचित (मोदक आदि के चूर्ण को पुनः साधु के लिए मोदक रूप में तैयार किया हुआ, दुर्भिक्ष भक्त (साधु के लिये दुर्भिक्ष के समय बनाया हुआ भोजन) कान्तार भक्त (साधु के निमित्त अरण्य में बनाया हुआ आहार), वर्दलिका भक्त (वर्षा के समय उपाश्रय में आकर बनाया भोजन) ग्लानभक्त (रुग्ण गृहस्थ नीरोग होने की कामना से दे वह भोजन), आदि दूषित आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता है।
इसी प्रकार मूल का भोजन, कंद का भोजन, फल का भोजन, बीजों का भोजन अथवा हरित का भोजन करना भी नहीं कल्पता है। इसके अतिरिक्त हे पुत्र! तू सुख भोगने योग्य है, दुःख सहने योग्य नहीं है। तू शीत सहने में समर्थ नहीं है, उष्ण सहने में समर्थ नहीं है। भूख नहीं सह सकता, प्यास नहीं सह सकता, वात, पित्त, कफ और सन्निपात से होने वाले विविध रोगों (कोढ़ आदि को) तथा आतकों (अचानक मरण उत्पन्न करने वाले शूल आदि) को, ऊँचे-नीचे इन्द्रिय-प्रतिकूल वचनों को, उत्पन्न हुए बाईस परीषहों और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार सहन नहीं कर सकता। अतएव हे लाल ! तू मनुष्य संबंधी कामभोगों को भोग। बाद में भुक्तभोगी होकर अरिहंत अरिष्टनेमि के समीप प्रव्रज्या अंगीकार करना।
तत्पश्चात् माता-पिता के इस प्रकार कहने पर गजसुकुमार कुमार ने माता-पिता से इस प्रकार कहा-हे माता-पिता ! आप मुझे जो यह कहते हैं सो ठीक है कि- 'हे पुत्र ! निर्ग्रन्थप्रवचन सत्य है,