Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय वर्ग]
[७१ समान त्वचावाले, समान उम्रवाले, समान रूप-लावण्य और यौवन गुणों से युक्त तथा एक समान आभूषण
और वस्त्र पहने हुए एक हजार उत्तम युवक पुरुषों को बुलाओ।" सेवक पुरुषों ने स्वामी के वचन स्वीकार कर शीघ्र ही हजार पुरुषों को बुलाया। वे हजार पुरुष हर्षित और तुष्ट हुए। वे स्नानादि करके एक समान आभूषण और वस्त्र पहनकर गजसुकुमाल के पिता के पास आये और हाथ जोड़कर, बधाकर, इस प्रकार बोले- "हे देवानुप्रिय! हमारे योग्य जो कार्य हो, वह कहिये।" तब गजसुकुमाल के पिता ने उनसे कहा- "देवानुप्रियो! तुम सब गजसुकुमाल कुमार की शिबिका को वहन करो। उन्होंने शिबिका वहन की। जब गजसुकुमाल शिबिका पर आरूढ हो गए तो सबसे आगे आठ मंगल अनुक्रम से चले। यथा(१) स्वस्तिक, (२) श्रीवत्स, (३) नन्दावर्त, (४) वर्धमानक, (५) भद्रासन, (६) कलश, (७) मत्स्य
और (८) दर्पण। इन आठ मंगलों के पीछे पूर्ण कलश चला, इत्यादि औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् गगनतल को स्पर्श करती हुई वैजयन्ती (ध्वजा) चली। लोग जय-जयकार करते हुए अनुक्रम से आगे चले। इसके बाद उग्रकुल, भोगकुल में उत्पन्न पुरुष यावत् बहुसंख्यक पुरुषों के समूह गजसुकुमाल के आगे पीछे और आसपास चलने लगे।
स्नात एवं विभूषित गजसुकुमाल के पिता हाथी के उत्तम कंधे पर चढ़े। कोरण्टक पुष्प की माला से युक्त छत्र धारण किये हुए, दो श्वेत चामरों से बिंजाते हुए, अश्व, हाथी, रथ और सुभटों से युक्त, चतुरंगिनी सेना सहित और महासुभटों के वृन्द से परिवृत गजसुकुमाल के पिता उसके पीछे चलने लगे।
गजसुकुमाल के आगे महान् और उत्तम घोड़े, दोनों ओर उत्तम हाथी, पीछे रथ और रथ का समूह चला। इस प्रकार ऋद्धि सहित यावत् वाद्यों के शब्दों से युक्त गजसुकुमाल चलने लगे। उनके आगे कलश और तालवृन्त लिये हुए पुरुष चले। उनके सिर पर श्वेत छत्र धारण किया हुआ था। दोनों ओर श्वेत चामर और पंखे बिंजाये जा रहे थे। इनके पीछे बहुत-से लाठी वाले, भाला वाले, पुस्तक वाले यावत् वीणा वाले पुरुष चले। उनके पीछे एक सौ आठ हाथी, एक सौ आठ घोड़े और एक सौ आठ रथ चले। उसके बाद लकड़ी, तलवार, भाला लिये हुए पदाति पुरुष चले। उनके पीछे बहुत-से युवराज, धनिक, तलवर, यावत् सार्थवाह आदि चले। इस प्रकार द्वारका नगरी के बीच में से चलते हुए नगर के बाहर सहस्राम्रवन उद्यान में अरिहंत अरिष्टनेमि के पास जाने लगे।
__ द्वारका नगरी के बीच से निकलते हुए गजसुकुमाल कुमार को श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, यावत् राजमार्गों में बहुत से धनार्थी, भोगार्थी और कामार्थी पुरुष, अभिनन्दन करते हुए एवं स्तुति करते हुए इस प्रकार कहने लगे-'हे नन्द (आनन्द दायक)! तुम्हारा भद्र (कल्याण) हो। हे नन्द! अखण्डित उत्तम ज्ञान, दर्शन और चारित्र द्वारा अविजित इन्द्रियों को जीतो और श्रमण धर्म का पालन करो। धैर्य रूपी कच्छ को मजबूत बाँधकर सर्व विघ्नों को जीतो। इन्द्रियों को वश करके परिषह रूपी सेना पर विजय प्राप्त करो। तप द्वारा रागद्वेष रूपी मल्लों पर विजय प्राप्त करो और उत्तम शुक्ल-ध्यान द्वारा अष्ट कर्म रूपी शत्रुओं का मर्दन करो। हे धीर! तीन लोक रूपी विश्व-मण्डप में आप आराधना रूपी पताका लेकर अप्र विचरण करें और निर्मल, विशुद्ध, अनुत्तर केवल-ज्ञान प्राप्त करें तथा जिनवरोपदिष्ट सरल सिद्धि-मार्ग द्वारा परम पद रूप मोक्ष को प्राप्त करें। आपके धर्म-मार्ग में किसी प्रकार का विघ्न नहीं हो।' इस प्रकार लोग अभिनन्दन और स्तुति करने लगे।
तब वे गजसुकुमाल कुमार द्वारका नगरी के मध्य से होते हुए नगरी के बाहर सहस्राम्रवन उद्यान में आये और तीर्थंकर भगवान् के छत्र आदि अतिशयों को देखते ही सहस्रपुरुषवाहिनी शिविका से नीचे